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गुरु-शिष्य
जाल में फँसती है क्या? जो लालची हों उसे गुरु नहीं बनाने चाहिए। जो लालची नहीं हो और स्वतंत्र हो, उन्हें गुरु बनाने चाहिए। गुरु कहें कि, 'चले जाओ' तब कहें कि, 'साहब आपकी मरज़ी। हमारा घर है ही। नहीं तो मेरी वाइफ भी गुरु ही है मेरी!'
नहीं तो पत्नी को भी गुरु बनाएँ गुरु करना ठीक नहीं लगे और गुरु के बिना चैन नहीं पड़े तो पत्नी से कहना, तू उल्टी घूमकर बैठ जा। मैं तुझे गुरु की तरह स्वीकार करूँगा।' मुँह मत देखना, हाँ! उल्टी घूम जा, कहें! जीवित मूर्ति है न!
हाँ, अर्थात् पत्नी को गुरु बनाना। आपको क्या करना है? विवाह नहीं किया अभी तक?
प्रश्नकर्ता : विवाह किया है न!
दादाश्री : तब उसे गुरु बनाना। वह अपने घर की तो है। घी ढुल गया, तो भी खिचड़ी में ही!
प्रश्नकर्ता : उससे क्या फायदा? ज्ञानी चाहिए न?
दादाश्री : तब अभी बाहर के गुरु भी क्या देनेवाले हैं? बाक़ी पत्नी को तो सभी ने गुरु बनाया ही होता है। वह तो मुँह से कोई कहता नहीं, उतना ही!
प्रश्नकर्ता : पर सबके बीच बोल नहीं सकते न!
दादाश्री : बोलते नहीं हैं, पर मैं जानता हूँ सभीको। मैं कहता भी हूँ कि अभी तक 'गुरु' नहीं आए, तब तक यह सयाना दिखता है। उसे आने तो दो! उसमें हर्ज भी नहीं है। पर अपनी अक्कल ऐसी होनी चाहिए कि उसका लाभ नहीं उठाए। हमारे लिए पकौड़ियाँ बना दे, जलेबी बना दे, लड्डु बना दे, फिर उसे गुरु बनाने में क्या हर्ज है? यानी बाहर के किसी गुरु के प्रति भाव नहीं होता हो तो पत्नी से कहें, 'तू मेरी गुरु है, मैं तेरा गुरु, चल आ जा!' तो उल्लास तो आएगा न! उसे भी उल्लास आएगा और हमें भी उल्लास आएगा। जिसे देखकर उल्लास नहीं आए उसे गुरु बनाएँ, उसके बजाय पत्नी