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गुरु-शिष्य
समपर्ण करने के बाद हमें कुछ भी करना नहीं होता। अपने यहाँ बालक जन्मे तो बालक को कुछ भी करना नहीं होता, उसी तरह समर्पण करने के बाद हमें कुछ भी नहीं करना होता है ।
आप जिसे बुद्धि समर्पण करो, उनमें जो शक्ति हो वह आपको प्राप्त हो जाती है। समर्पण किया और उनका सब हमें प्राप्त हो जाता है । जैसे एक टंकी के साथ दूसरी टंकी को ज़रा पाईप से जोइन्ट करें न, तो एक टंकी में चाहे जितना माल भरा हुआ हो, लेकिन दूसरी टंकी में उतना ही लेवल आ जाता है। समर्पण भाव उसके जैसा कहलाता है।
जिनका मोक्ष हो गया हो, जो खुद मोक्ष का दान देने निकले हों, वही मोक्ष दे सकते हैं। वैसे हम मोक्ष का दान देने निकले हैं । हम मोक्ष का दान दे सकते हैं। वर्ना कोई मोक्ष का दान नहीं दे सकता ।
प्रश्नकर्ता : क्या सद्गुरु, वे 'रिलेटिव' नहीं हैं?
दादाश्री : सद्गुरु, वे रिलेटिव हैं, परंतु सद्गुरु जो ज्ञान देते हैं, वह रियल है। उस रियल से आत्मरंजन होता है। वह आनंद, चरम कोटि का आनंद है! रियल अर्थात् परमानेन्ट वस्तु और रिलेटिव अर्थात् टेम्परेरी वस्तुएँ | रिलेटिव से मनोरंजन होता है ।
प्रश्नकर्ता : तो फिर सद्गुरु, वे मनोरंजन का साधन हैं?
दादाश्री : हाँ! सद्गुरु में ज्ञान हो तो आत्मरंजन का साधन और ज्ञान नहीं हो तो मनोरंजन का साधन ! आत्मज्ञानी सद्गुरु हों तो आत्मरंजन का साधन। आत्मज्ञानी सद्गुरु हों न, तब तो निरंतर याद ही रहते हैं, वही रियल और नहीं तो सद्गुरु याद ही नहीं आते हैं।
प्रश्नकर्ता : सच्चे गुरु को खुद का सर्वस्व सौंप दें, उससे सर्व कार्य सिद्ध हो जाते हैं। यह व्यवहार में कितने अंशों तक सत्य है ?
दादाश्री : यह तो व्यवहार में बिल्कुल सच है । गुरु को सौंपें एक जन्म उसका अच्छा निकलता है । क्योंकि गुरु को सौंपा मतलब कि गुरु की आज्ञा अनुसार चला तो खुद को दुःख नहीं आता ।