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गुरु-शिष्य
नुकसान होगा, क्योंकि उपकारी भाव चला जाएगा। जितना उपकारी भाव उतना अधिक परिणाम प्राप्त होगा । उपकारी भाव को भक्ति कहा है ।
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प्रश्नकर्ता : आपको निमित्त मानें, तो उपकारी भाव चला जाएगा, वह समझ में नहीं आया।
दादाश्री : हम तो आपसे कहते हैं कि हम निमित्त हैं, परंतु यदि आपने निमित्त माना तो आपको लाभ नहीं मिलेगा। आप उपकार मानोगे तो परिणमित होगा। ऐसे नियम हैं इस दुनिया के । लेकिन ये निमित्त ऐसे हैं कि मोक्ष ले जानेवाले निमित्त हैं। इसलिए महानतम् उपकार मानना । वहाँ अर्पण करने को कहा है। सिर्फ उपकार ही नहीं मानना है, लेकिन सारा मन-वचन-काया अर्पण कर देना । सर्वस्व अर्पण करने में देर ही नहीं लगे, ऐसा भाव आ जाना चाहिए ।
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वीतरागों ने भी कहा है कि ज्ञानीपुरुष तो ऐसा कहते हैं कि ‘मैं तो निमित्त हूँ', परंतु खुद मुमुक्षु को खुद को, वे निमित्त हैं ऐसा नहीं मानना चाहिए। मुमुक्षुओं को निमित्त भाव नहीं दिखाना चाहिए कभी भी कि 'अहो, आप तो निमित्त हैं। उसमें आप क्या करनेवाले हैं? ' ' वे ही हमारा सर्वस्व हैं', ऐसा बोलना, नहीं तो इसे ‘व्यवहार चूक गए ' कहा जाएगा। आपको तो, 'वही मोक्ष में ले जानेवाले हैं', ऐसे कहना है । और ज्ञानीपुरुष ऐसा कहें कि, 'मैं निमित्त हूँ', इस तरह का दोनों का व्यवहार कहलाता है।
अर्थात् वस्तुस्थिति में यह इतना सरल मार्ग है, समभावी है, कोई उपाधि रूप नहीं है और फिर मार्ग दिखानेवाले और कृपा करनेवाले खुद क्या कहते हैं? कि ‘मैं निमित्त हूँ’। देखो सिर पर पगड़ी नहीं पहनते न, नहीं? नहीं तो कितनी बड़ी पगड़ी पहनकर घूमते रहते ! यानी हम देनेवाले भी नहीं हैं, निमित्त हैं। डॉक्टर के वहाँ जाएँ, तब तो रोग कुछ मिटे । बढ़ई के वहाँ जाएँ तो रोग मिटेगा?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : इसलिए जिस-जिस चीज़ के निमित्त हैं, वहाँ जाएँ तब अपना काम होगा। इसलिए क्रोध - मान-माया - लोभ दूर करने हों, यह सारा अज्ञान दूर करना हो, तो ज्ञानी के पास जाना पड़ेगा।