________________
१२६
गुरु-शिष्य
यह तो कपड़े बदलकर लोगों को भरमाते हैं और लोग लालची हैं इसीलिए भ्रमित हो जाते हैं। लालची नहीं हो, तो कोई भी भ्रमित न हो! जिसे किसी भी प्रकार का लालच नहीं है, उसे भ्रमित होने की बारी नहीं आती।
प्रश्नकर्ता : परंतु आज तो गुरु के पास से भौतिक सुख माँगते हैं, मुक्ति कोई नहीं माँगता है।
दादाश्री : सब ओर भौतिक की ही बातें हैं न! मुक्ति की बात ही नहीं है। यह तो 'मेरे बेटे के घर बेटा हो जाए, या फिर मेरा व्यापार अच्छी तरह चले, मेरे बेटे को नौकरी मिल जाए, मुझे ऐसे आशीर्वाद दें, मेरा कल्याण करें' ऐसी अपार लालच हैं सभी। अरे, धर्म के लिए, मुक्ति के लिए आया है या यह सब चाहिए?
अपने में कहावत है न, 'गुरु लोभी, शिष्य लालची, दोनों खेलें दाँव।' ऐसा नहीं होना चाहिए। शिष्य लालची है, इसलिए गुरु उनसे कहेगा कि, 'तुम्हारा यह हो जाएगा, हमारी कृपा से ऐसा हो जाएगा, यह हो जाएगा।' वह लालच घुसा, वहाँ बरकत नहीं आती।
गुरु में स्वार्थ नहीं होना चाहिए। कलियुग के कारण गुरु में कोई सत्व नहीं होता है। क्योंकि वह आपसे अधिक स्वार्थी होते हैं। उसमें वे खुद का काम करवाने फिरते हैं, आप अपना काम करवाने फिरते हो। ऐसा रास्ता गुरु-शिष्य का नहीं होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : बुद्धिशाली लोग बहुत बार ऐसे गलत गुरु को वर्षों तक ऐसा ही मानते हैं कि ये ही सच्चे गुरु हैं।
दादाश्री : वे तो लालच होता है सारा। काफी कुछ लोग तो लालच से ही गुरु बनाते हैं।
अभी के ये गुरु, ये कलियुग के गुरु कहलाते हैं। किसी न किसी स्वार्थ में ही होते हैं कि 'किस काम में आएँगे?' ऐसा पहले से ही सोचते हैं! अपने मिलने से पहले ही सोचते हैं कि ये क्या काम आएँगे? कभी ये डॉक्टर वहाँ