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गुरु-शिष्य
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दुकानों में से क्या लेना है? ईमानदार दुकानें हों, तब वहाँ माल नहीं होता तो वहाँ से क्या लेना है? सच्चे मनुष्य के पास दुकान में माल नहीं है। प्रपंची दुकानों में यों तौल में माल ज़्यादा देते हैं, परंतु वह मिलावटवाला माल होता है।
परंतु जहाँ किसी भी प्रकार की ज़रूरत नहीं हो, पैसों की ज़रूरत नहीं हो, खुद के आश्रम का विस्तार करने की या खुद का नाम कमाने की ज़रूरत नहीं हो, वैसे मनुष्य हों तो बात अलग है। वैसे मनुष्य एक्सेप्टेड (स्वीकार्य) हैं। उस दुकान को यदि दुकान कहें तो भी वहाँ लोगों को लाभ होता है। फिर वहाँ पर ज्ञान नहीं हो तो भी उसमें हर्ज नहीं है, परंतु लोग निर्मल होने चाहिए, प्योर होने चाहिए। इम्प्योरिटी (मलिनता) से, कभी कोई कुछ प्राप्त नहीं कर सकता।
अप्रतिबद्धता से विचरें वे ज्ञानी प्रश्नकर्ता : हिन्दू समाज में, जैन समाज में आश्रम पद्धति है, वह ठीक है या नहीं?
दादाश्री : वह पद्धति सत्युग में ठीक थी, यानी तीसरे और चौथे उन दो आरों में ठीक थी। पाँचवे आरे में आश्रम की पद्धति ठीक नहीं है।
प्रश्नकर्ता : आश्रम पद्धति से भेद-अभेद और संप्रदाय उत्पन्न होते हैं या नहीं?
दादाश्री : आश्रम पद्धति संप्रदाय खडे करने का साधन ही हैं! संप्रदाय बनानेवाले सभी अहंकारी हैं, ओवरवाईज़ नया खड़ा करते हैं, तृतियम! मोक्ष में जाने की कोई भावना नहीं है। खुद की अक्लमंदी दिखानी है। वे नयेनये भेद डालते रहते हैं और जब ज्ञानी प्रकट होते हैं तब सारे भेद बंद कर देते हैं, कम कर देते हैं। लाख ज्ञानियों का एक ही अभिप्राय होता है और एक अज्ञानी के लाख अभिप्राय होते हैं।
प्रश्नकर्ता : कहलाता आश्रम है, परंतु वहाँ परिश्रम होता है। दादाश्री : नहीं, नहीं। हिन्दुस्तान में लोगों ने आश्रम का क्या उपयोग