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गुरु-शिष्य
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को खनकाया तो इस रुपये ने दावा नहीं किया जब कि इसमें ये दावा कर रहे हैं, इसलिए हम शाल देकर आ जाएँगे । इतना सौ रुपये का नुकसान उठाना पड़ेगा। लेकिन हम उस दुकान में से- फँसाव में से तो निकल गए न ! मेरा क्या कहना है कि कब तक फँसे रहेंगे?
और जिन्हें राग-द्वेष नहीं होते, वे अंतिम गुरु! खाना परोसें और फिर थाली उठा लें और उनकी आँखों में कोई फर्क नहीं दिखे, आँखों में क्रोध नहीं दिखे तो समझना कि ये हैं 'लास्ट' गुरु! नहीं तो, यदि क्रोध दिखे तो उस बात में माल ही नहीं न! आपको समझ में आया?
प्रश्नकर्ता : हाँ, हाँ।
दादाश्री : यानी परीक्षा के लिए नहीं, परंतु जाँच करनी चाहिए। सिर्फ परीक्षा के लिए तो बुरा दिखेगा । परंतु ज़रा ध्यान रखना चाहिए कि क्यों इनकी आँखों में ऐसा हो रहा है! अब, यह थाली उठा ली और आँखों में परिवर्तन हो तो तुरंत कहना, ‘नहीं, दूसरी चाँदी की थाली ले आता हूँ ।' परंतु हमें देख लेना है कि, 'आँखों में बदलाव होता है या नहीं !' पता तो लगाना पड़ेगा न ?
हम धोखा खाकर माल लाएँ वह किस काम का? माल लेने गएँ, तो माल तो उसे देखना पड़ेगा न ! ऐसे देखना नहीं पड़ेगा? ज़रा खींचकर देखना पड़ेगा न? फिर फटा हुआ निकले तब लोग कहेंगे, 'आपने शाल देखकर क्यों नहीं ली थी? ऐसा कहते हैं या नहीं कहते? इसलिए श्रीमद् राजचंद्र कहते हैं न, गुरु अच्छी तरह देखकर बनाना, जाँच करके बनाना ! नहीं तो भटका दोंगे। ऐसे ही चाहे जिसे चिपट पड़े वह काम में नहीं आएगा न ! इसी तरह धोखा खाकर फिर क्या होगा? यानी सब ओर देखना पड़ेगा।
जाएँगे।
खुली करीं बातें, वीतरागता से
इस कलियुग में अच्छे गुरु नहीं मिलेंगे और गुरु आपको पकाकर खा
प्रश्नकर्ता : ठीक है । परंतु अपवाद स्वरूप एक तो सच्चे गुरु होंगे न?