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गुरु-शिष्य
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दादाश्री : जहाँ बुद्धि नहीं हो वहाँ और बॉडी की ओनरशिप नहीं हो, वहाँ पर। ओनरशिपवाले हों तो वे मालिकीवाले और हम भी मालिकीवाले, दोनों टकराएँ! तब काम नहीं होगा।
फिर, जो अपने मन का समाधान करें, वे अपने गुरु। वैसे नहीं मिलें तो ऐसे गुरु का क्या करना है?
वे गुरु तो हमें हर प्रकार से हेल्प करें, वैसे चाहिए। यानी हमें हर एक बात में हेल्प करें। पैसों की मुश्किल में भी हेल्प करें। यदि गुरु महाराज के पास हों तो वे कहें, 'भाई ले जा, मेरे पास हैं।' ऐसा होना चाहिए। गुरु अर्थात् हेल्पिंग, माँ-बाप से भी अधिक हमारा ध्यान रखें, तो उन्हें गुरु कहा जाता है। ये लोग तो छीन लेते हैं। पाँच-पाचस-सौ रुपये झपट लेते हैं।
औरों के लिए जीवन जीते हों, वैसे गुरु होने चाहिए! खुद के लिए नहीं!
फिर गुरु ज़रा शरीर से सुदृढ़ होने चाहिए। ज़रा सुदर्शन होने चाहिए। सुदर्शन नहीं हों तो भी उकताहट होगी। 'इनके यहाँ पर इधर आकर कहाँ बैठना हुआ? वे दूसरेवाले गुरु कितने सुंदर थे!' ऐसा कहता है। इस तरह दूसरों के साथ तुलना करनेवाले नहीं हो तो ही गुरु बनाना। गुरु बनाओ तो सोच-समझकर बनाना। बाक़ी, गुरु बनाने के लिए ही बनाएँ, ऐसा ज़रूरी नहीं है!
__ और उनमें तो स्पृहा नहीं होती और नि:स्पृहता भी नहीं होती। नि:स्पृह नहीं हों, तो कोई स्पृहा है उन्हें? नहीं, आपके पौद्गलिक बाबत में यानी भौतिक बाबत में निःस्पृह हैं वे खुद और आत्मा की बाबत में स्पृहावाले हैं। हाँ, संपूर्ण नि:स्पृह नहीं होते वे!
गुरु ऐसे होने चाहिए कि जिन्हें किसी भी चीज़ की इच्छा नहीं हो। वे लक्ष्मी नहीं चाहते हों, और विषय नहीं चाहते हों, दोनों की ज़रूरत नहीं हो। फिर कहें कि, 'मैं आपके पैर दबाऊँगा, सिर दबाऊँगा।' पैर दबाने में हर्ज नहीं है हमें। पैर दबाएँ, सेवा करें।
मोक्ष के मार्ग पर तो उनके गुरु आत्मज्ञानी होने चाहिए। वैसे आत्मज्ञानी गुरु हैं नहीं, इसलिए पूरा केस बिगड़ गया है।