________________
९४
गुरु-शिष्य
तो भी श्रद्धा हो ही जाती है । दूसरी जगहों पर रखी हुई श्रद्धा 'ऐसे' करें न, तो उखड़ जाती है तुरंत | इसलिए जहाँ वाणी, वर्तन और विनय मनोहर हों, मन का हरण हो वैसे हों, तब सच्ची श्रद्धा बैठती है ।
प्रश्नकर्ता : श्रद्धा बैठने के लिए मुख्य वस्तु वाणी है?
दादाश्री : वह बोले न तो तुरंत हमें श्रद्धा आ जाती है कि 'ओहोहो, ये कैसी बातें करते हैं !' उनके बोल पर श्रद्धा बैठ जाती है न, तब तो काम ही निकल गया। फिर एक बार श्रद्धा बैठे और एक बार नहीं बैठे, वैसा नहीं चलेगा। हम जब भी जाएँ, तब वे बोलें तो हमें श्रद्धा आ जाए। उनकी वाणी ऐसी फर्स्ट क्लास होती है । भले ही साँवले हों और चेचक के दाग़ हों, लेकिन वाणी फर्स्ट क्लास बोलते हों तो हम समझ जाएँगे कि यहाँ श्रद्धा बैठेगी।
प्रश्नकर्ता: फिर, और क्या-क्या होना चाहिए, श्रद्धा आए उसके लिए?
दादाश्री : प्रभावशाली ऐसे होते हैं कि देखते ही दिल को ठंडक हो जाए। यानी देहकर्मी होने चाहिए। हम कहें कि भले बोलो मत, परंतु ऐसा लावण्य दिखाओ कि मुझे श्रद्धा आ जाए। परंतु यह तो लावण्य भी नहीं दिखता । फिर श्रद्धा कहाँ से आए? इसलिए यदि आप वैसे देहकर्मी हैं, तो मैं आपके प्रति आकर्षित हो जाऊँगा । मुझे उल्लास ही नहीं आता न, आप पर । यदि आपका मुँह सुंदर होता तो भी शायद उल्लास आता । परंतु चेहरे भी सुंदर नहीं हैं, शब्द भी सुंदर नहीं हैं। यानी, न तो प्रभावशाली हैं, न ही बोलना आता है। ऐसा नहीं चलेगा यहाँ पर तो, या फिर ज्ञान सुंदर हो तो भी श्रद्धा आए । मेरा तो ज्ञान सुंदर है इसलिए श्रद्धा बैठती ही है । छुटकारा ही नहीं ! बाहर तो शब्द सुंदर हों, तो भी चलेगा।
अब बोलना नहीं आता हो, तो भी जब हम वहाँ पर बैठें तब भीतर दिमाग़ में ठंडक हो जाए तो समझना कि यहाँ पर श्रद्धा रखने जैसी है। जब जाएँ तब, वहाँ जाएँ तब अकुलाहट (बेचैनी) में से ठंडक हो जाए, तब समझना कि यहाँ श्रद्धा रखने जैसी है । वातावरण शुद्ध हो, तब समझ जाना कि ये शुद्ध मनुष्य हैं, तो वहाँ श्रद्धा आएगी।