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गुरु-शिष्य
उत्थापन, वह तो भयंकर गुनाह गुरु को गुरु के रूप में मानना मत, और मानो तो फिर पीठ मत फेरना उनकी तरफ। तुझे वह पसंद नहीं हो तो लोटा रख! लोटे में हर्ज नहीं है। जयजय कर, वहाँ फिर बुद्धि उछलकूद नहीं करेगी, तो वह तेरा काम निकाल देगा। अब इतना सब किसे सँभालना आता है? यह सब किस तरह समझ में आए?
प्रश्नकर्ता : गुरु बनाते समय बहुत अच्छा लगता है, सद्गुणी लगते हैं कि इनके जैसा कोई है ही नहीं। परंतु बनाने के बाद गड़बड़ निकले तब क्या करें?
दादाश्री : इससे अच्छा तो स्थापन करना ही मत। लोटा रखना अच्छा, वह किसी दिन उखाड़ना तो नहीं पड़ेगा। लोटे का झंझट ही नहीं न! यह लोटा कुछ इतना सारा काम नहीं करता, परंतु हेल्प बहुत करता है।
प्रश्नकर्ता : गुरु की स्थापना तो कर दी, परन्तु बुद्धि कुछ एकदम चली नहीं जाती, इसलिए उसे उल्टा दिखता है। उसका वह क्या करे?
दादाश्री : दिखता है, परंतु स्थापना की, इसलिए अब उल्टा नहीं होगा। स्थापना की इसलिए बुद्धि से कह दो कि, 'यहाँ पर तेरा राज नहीं रहेगा, मेरा राज है यह। यहाँ तेरी और मेरी, दोनों की स्पर्धा है अब। मैं हूँ और तू है।'
एक बार स्थापन कर के फिर उखाड़ना, वह तो भयंकर गुनाह है। उसके दोष लगे हैं इन हिन्दुस्तान के लोगों को! उन्हें गुरु की स्थापना ही करनी नहीं आती। आज स्थापन, तो कल उखाड़ देते हैं। परंतु ऐसा नहीं चलेगा। गुरु जो कुछ भी करते हों, उसमें तू किसलिए माथा पच्ची करता है, स्थापना करने के बाद? एक बार दिल में ठंडक हुई, इसलिए 'मुझे हर्ज नहीं है' ऐसा कहकर आपने गुरु बनाए। तो अब गुरु में कमियाँ निकालते हो? कमी निकालनेवाले कभी भी मोक्ष में नहीं गए, परंतु नर्क में गए हैं।
फिर गुरु के तो दोष ही नहीं निकालते इसलिए कोई अच्छे गुरु ढूँढ निकालो कि जो अपने दिल को पसंद आएँ। वैसे गुरु ढूँढने पड़ेंगे। अपने दिल को आनंद हो ऐसे गुरु चाहिए। हमेशा