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________________ (548) अनीति पूर्वक ग्रहण करने को लोभ कहते हैं / व्यर्थ आग्रहकरने और दूसरे के यथार्थ वचन को ग्रहण न करनेका नाम मान है। कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप और विद्यादि का अहंकार करने को मद कहते हैं / निष्प्रयोजन दूसरे को दुःख पहुँचा कर और जुआ आदि खेलकर, आनंद मानने का नाम हर्ष है। उक्त छःप्रकार के शत्रुओं का त्याग करनेवाला ही धर्म के योग्य होता है, उनको पोषण करनेवाला नहीं / इन अन्तरंग शत्रुओंने कइयों का नाश किया है, उनमें से यहाँ एक एकका एक एक उदाहरण दिया जाता है / कान से दांडक्यभोज का; क्रोव से जन्मेजय का; लोभ से अजविन्दु का; मान से दुर्योधन का; मद से हैहयअर्जुन का और हर्ष से वातापि का नाश हुआ है। पैंतीसवाँ गुण / वशीकृतेन्द्रिय ग्रामः / अर्थात् अपनी इन्द्रियों को वश में करना मार्गानुसारी का पैंतीसवाँ मुण है। शंका-जिसको धर्म की प्राप्ति नहीं हुई वह इन्द्रियों को कैसे वश में कर सकता है ? और जो इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं कर लेगा वह गृहस्थाश्रम कैसे चला सकेगा ? उत्तरवशीकृतेन्द्रियग्रामः का अर्थ यहाँ है इन्द्रियों की वासना तृप्ति को मर्यादित करना / इन्द्रिय वासना का सर्वथैव त्याग करना नहीं। सर्वथैव त्याग केवल मुनिजन ही कर सकते हैं। इस उत्तर से
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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