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________________ (533 ) वह निश्चिंत भावं से सांसारिक कार्य भी नहीं चला सकता है। इसलिए धर्म और काम के साथ ही अर्थ की साधना करना भी अत्यंत आवश्यक है / शंका-धर्म और अर्थ की सेवा करनेवाला, न किसी का कर्जदार ही होता है और न उसके धर्म साधनमे ही कोई विघ्न आ सकता है, इसलिए क्या आवश्यकता है कि पाप मूल ' काम ' की सेवा की जाय ? यद्यपि विचार सुंदर है तथापि काम सेवन विना गृहस्थाभावरूप आपत्ति आती है / इसलिए तीनों वर्गों की योग्य रीति से साधना करनेवाला गृहस्थ ही धर्म के योग्य होता है। कर्मवश यदि बाधा उपस्थित होगी तो वह, क्रमशः धर्म, अर्थ, और फिर काममें बाधा होगी / मगर गृहस्थी पहिले के * पुरु. पार्यों में वाधा नहीं पड़ने देनी चाहिए। जैसे किसी की 40 वर्ष की उम्र में स्त्री मर जाय तो उसको फिरसे ब्याह न कर चतुर्थ व्रत-ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करना चाहिए। ऐसे करने से यद्यपि 'काम में बाधा पड़ेगी तथापि धर्म और अर्थ की रक्षा हो जायगी, व्यवहार विरुद्ध और शास्त्र विरुद्ध चलने का दोष भी उसको नहीं लगेगा / यदि दैवयोग से स्त्री और धन दोनों ही का नाश होजाय तो धर्मसेवा करना चाहिए। यदि धर्म होगा तो सब कुछ मिल जायगा। कहा है कि-'धर्मवित्तास्तु साधवः / सज्जन पुरुषों के पास धर्मरूपी द्रव्य होता है / धर्म से सारी वस्तुएँ मिलती हैं। कहा है कि:
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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