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________________ (412) चाहिए कि बे इन्द्री से तीन-इन्द्री बनना; तीन इन्द्री से चार इन्द्री बनना; और चार इन्द्री से पाँच इन्द्री बनना भी इन्हीं दस दृष्टान्तों से दुर्लभ है / इस तरह मनुष्य जन्म पाने के बाद आर्यदेश आदि की योगवाई मिलना भी दस दृष्टान्तों से कठिन है। इस मनुष्य भव में देव, गुरु की योगवाई भी पूर्व पुण्य के योग से ही मिलती है। उस योगवाई से भी यदि सफलता न हो, तो शहरमें रहते हुए भी लुट जाने के समान है। अहो / विवय॑ते मुग्धैः क्रोधो न्यग्रोधवृक्षवत् / अपि वर्द्धयितारं स्वं यो भक्षयति मूलतः // 1 // न किश्चिन् मानवा मानाधिरूढा गणयन्त्यमी / मर्यादालचिनो हस्त्यारूढहस्तिपका इव // 2 // कपिकच्छ्बीनकोशीमिव मायां दुराशयाः / उपतापकरी नित्यं न त्यजन्ति शरीरिणः // 3 // दुग्धं तुषोदकेनेवाञ्जनेनेव सितांशुकम् / निर्मलोऽपि गुणग्रामो लोभेनैकेन दुष्पते // 4 // कषाया भवकारायां चत्वारो यामिका इव / यावजाग्रति पार्श्वस्थास्तावन् मोक्षः कुतो नृणाम् // 2 // भावार्थ-आश्चर्य है कि, जीव वटवृक्ष की तरह क्रोध को जो कि, अपने बढानेवाले ही को जड़मूल से खा जाता
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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