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________________ (404) अल्प मूल्यवाला रत्न भी यदि मनुष्य के पाप्त होता है, तो वह उसको बहुत ही सँभाल के साथ उसकी रक्षा करता है। मगर यदि वह उस रत्न को नाव में बैठकर देखने लगे और यह रत्न अचानक ही उसके हाथ से पानी में गिर जाय तो क्या वह उसे वापिस मिल सकता है ! और यदि मिल जाय तो बड़ी ही कठिनता से मिलता है / रत्न खोते समय उसके हृदय में कितनी वेदना होती है, उसका आभास उसकी विकृत मुखमुद्रा हमें बताती है / खोया हुआ रत्न ऐसा नहीं होता कि, फिर वैसे मनुष्य प्राप्त न कर सकता हो / मान लो कि, यदि वह प्राप्त नहीं कर सकता हो, तो भी उसकी इज्जत तो उस रत्न से नहीं जाती है। तो भी मनुष्य उस रत्न की प्राप्ति के लिए हजारों प्रयत्न करता है। अब सोचने की बात तो यह है कि, यह संसार-समुद्र अत्यंत गहरा और अनंत योजन लंबा है। उसके अंदर जीवों के रत्न खोये हुए हैं। वर्तमान में भी उनके मनुष्य जन्म रूपी अमूल्य और अलभ्य 'रत्न' प्रमाद से गिर गये हैं। मगर जीवों को उनका तनिकसा भी शोक नहीं है / जब शोक ही नहीं है, तब उसको प्राप्त करने का प्रयत्न तो वे करें ही किसलिए ! और इसका परिणाम यह होगा कि, उन्हें चौरासीलाख जीवयोनि में पर्यटन करना पड़ेगा। क्या यह बात खेदजनक नहीं है कि, जीव तुच्छ रत्न की इतनी परवाह करे और अमूल्य रत्न की ओर इस तरह दुर्लक्ष्य रखे।
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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