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________________ (387 ) कहा है कि-" भोगे रोगभयम् / " ( भोग में रोग का भय रहता है।) इस वाक्य से भोग इस भव में कड़वे फल देनेवाले सिद्ध होते हैं। और भवान्तर में नरकादि गतियों का देनेवाला होता है / इसलिए भोगों को सर्पफणादि की जो उपमा दी गई है वह बहुत ही उचित है / पुत्र, पौत्र; भाई, बहिन; माता, पिता; और धन, धान्यादि के संगम भी स्वप्न के समान हैं / जैसे स्वप्न के पदार्थ स्वप्ने में ही अच्छे मालुम होते हैं, परन्तु जागृतावस्था में वे मिथ्या मालूम होते हैं / इसी तरह इनकापुत्रादि का-मेल भी इस जीवन तक ठीक जान पड़ते है; परन्तु जीवन के अभाव में-परभव में-ये मिथ्या हो जाते हैं। मगर जीव मिथ्या संगम के लिए सच्चा पापकर्म करता है। और वह पापकर्म परभव में भी जीव के साथ जाता है / कुटुंब के लिए जीव पाप का ढेर लगाता है। पापकर्म करके धन इकट्ठा करता है / मगर अन्त में धन तो कुटुंब खा जाता है और पाप उसको भोगना पड़ता है। पाप में से हिस्सा लेनेवाला कोई भी नहीं है। यदि कोई पाप का भाग लेने की स्वीकारता भी दे, तो ऐसा होना अशक्य है / कृत पुण्य, या पाप जीव को स्वयं ही भोगना पड़ता है। संसार की स्वार्थ परता। संसार स्वार्थ का सगा है। सब जानते हैं कि माता को
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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