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________________ ( 385) जब तक वह अंदर रहता है, तब तक उसका कुछ भी विचार नहीं किया जाता। इतना ही नहीं, लोग उल्टा उससे प्रेम करके नरक में जाते हैं। स्तन जंघादि शरीर को कोई यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखेगा तो फिर वह कभी इनमें प्रेम नहीं करेगा / मगर रागांध पुरुष उनको तत्त्वदृष्टि से न देख कर कामदृष्टि से देखते हैं। उनको कनक-कलशादि की उपमा देते हैं और भोले लोगों को रागफॉप में फँसाते हैं। मगर आत्मार्थी पुरुषों को इससे बचना चाहिए / प्रत्यक्ष अशुचि पदार्थ जिसमें मालुम होते हैं उसमें मोह नहीं करना चाहिए / प्रत्युत उससे उपराम होना चाहिए कि, जिससे भव परम्परों कम हो / देखो शरीर के संयोग से प्राणि कैसे कैसे अनर्थ करते हैं ? : रोगाः समुद्भवन्त्यस्मिन्नत्यन्तातङ्कदायिनः / दंदशूका इव क्रूराः जरद्विटपकोटरे // निसर्गाद् गत्वरश्चायं कायोऽब्द इव शारदः / दृष्टनष्टा च तत्रेयं यौवनश्रीस्तडिन्निमा // भावार्थ-जीर्ण शरीर के कोटर में वृक्ष की गुफा में-जैसे अत्यन्त क्रूर सर्प होते हैं, वैसे ही शरीर में भी अत्यन्त कष्टदायी रोग उत्पन्न होते हैं / शरद ऋतु के मेघ के समान, काया स्वभाव से ही मिट जानेवाली है। इसमें युवावस्था की शोभा क्षणिक चमकनेवाले बिजली के समान चपल है। 25
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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