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________________ (382) महिमा का उपदेश देवे, मन वचन और काय से ज्ञान की आसातना टाले और दूसरों को भी आसातना टालने का उपदेश देवे; आसातना करनेवाले जीव को करुणा भाव से उपदेश देवे; पाटी, पुस्तक, ठवणी कवली आदि ज्ञानोपकरण को पैर नहीं लगावे; ज्ञान की चीजें अपने पास रखकर आहार, निहार न करे; पुस्तक को नामि के निम्न भाग में न रक्खे, सोते हुए पुस्तक न पढ़े; पुस्तक को अधुनिक शौकीन पढ़नेवालों की भाँति उल्टी न रक्खे; पुस्तक को उठाते धरते बहुमानपूर्वक नमस्कार करे; अजान में भी यदि पैर लग जाय तो उठ कर तीन खमासमण देवे / किसी भी भाषा या लिपी में लिखे हुए पुस्तकों की अवज्ञा न करे; न उनको फाड़े ही / और तो क्या साबुन पर लिखे हुए अक्षर भी अपने हाथों नष्ट न हो इसका ध्यान रक्खे / भव्य जीवों को भी ऐसा ही करने की सम्मति देवे; और आहार निहार करता हुआ न बोले; आहार करते समय यदि बोलने की आवश्यकता हो तो मुँह साफ करके बोले / ऐसे ही लोग सच्चे आराधक होते हैं और उत्तम फल की प्राप्ति करते हैं। जो केवल मोहाधीन हो कर ही पुस्तक की रक्षा करते हैं वे मोह को बढ़ाते हैं; अकृत्य को कृत्य समझते हैं; उन्मार्ग को मार्ग मानते हैं; और अठारह पापथान कों में से उत्पन्न हुए श्रावक के पैसे को कूए में से, गढ्ढे में डलवाते हैं। कारण यह होता है कि, वे इकट्ठे किये हुए ग्रंथ किसी को बिगड़ने के भय से देते नहीं हैं। इतना ही नहीं
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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