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________________ ( 379 ) सुंदर और बढिया आल्मारियाँ मोल लेता है। अथवा खास तरह से बढिया नवीन आल्मारी बनवाता है। तत्पश्चात् उस आरमारी को रखने के लिए वह श्रावकों को पत्थर का घर बँधवा देने का उपदेश देता है / उन्हें समझाता है कि, पुस्तकों की रक्षा करने में अनंत पुण्य है / शास्त्रों में ज्ञान-चैत्य होना बताया गया है, इसलिए इस समय ऐसा होना चाहिए। बेचारे श्रावक भक्तिभावों से और शुभ फल की आशा से पचीस, पचास हजार रुपयों का खर्चा करते हैं। और मकान बनवा देते हैं। तत्पश्चात् वे मुनिश्री भी दो चार महीने तक के लिए पुस्तकों पर कन्हर चढ़ाने में, छपे हुए पुस्तकों पर रेशमी कपड़े का पुट्ठा लगवाने में और पुस्तकें बराबर रखने को डिब्बे बनवाने के कार्य में, इतने निमग्न हो जाते हैं, जितने की हंगाम के मौके पर-फसल के मौके पर-व्यापारी हो जाते हैं। व्यापारियों को उस मौके पर जैसे रोटी खानेकी भी बड़ी कठिनता से फुर्सत मिलती है। इसी तरह मुनिश्री को भी आहार पानी के लिए जाने के लिए भी बड़ी कठिनता से फुर्सत मिलती है। साधुओं को इसतरह काम में निमग्न देखकर यदि कोई श्रावक सरलता से आकर पूछता है कि, महाराज आप के पीछे यह क्या उपाधि है ! तो वे उत्तर देते हैं:-" हे महाभाग्य, यह तो ज्ञान की भक्ति है, ज्ञानभक्ति करनेवाला भी उत्तम फल पाता है।" यह उत्तर सुनकर श्रावक मन ही मन समझ जाता है कि, महाराज
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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