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________________ ( 369) कषाय त्याग। जैसे प्रमाद त्याग करने योग्य है, इसीतरह उसके पुत्र क्रोधादि कषाय भी त्याग करने योग्य हैं। क्योंकि क्रोधादि शत्रु सदैव आत्मा का अहित ही करनेवाले हैं। यह बात निम्न लिखित गाथा से ज्ञात होगी। . कोहं च माणं च मायं च लोमं च पाववड्ढणं / वमे चत्तारि दोसे उ इच्छंतो हिअमप्पणो / भावार्थ-अपने आत्म-हित को चाहनेवाले को चाहिए कि वह पाप को बढ़ानेवाले क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग कर दे। कारण यह है कि, क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मित्राचार को नष्ट करती है और लोभ, प्रीति, विनय और मित्राचार तीनों को नष्ट करता है। इसलिए ये चारों कषायें दूर करने योग्य हैं। इनको दूर करने का उत्तम औषध इस गाथा में बताया गया है कि: उवससेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे / मायमज्जवमावेण लोमं संतोसओ जिणे // भावार्थ- उपशम भावों से क्रोध को, मृदुलासे मान को, सरल भावों से माया को और संतोष से लोम को जीतना चाहिए। 24
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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