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________________ - ( 358) ये सब अवस्थाएँ शुभाशुभ कर्म के कारण से हुई होती है। कर्म यह एक जबर्दस्त प्रगाढ लेप है जो अनादिकाल से जीव पर लगा हुआ है। जसे जैसे उसकी ऊपर से पुराना लेप थोड़ा थोड़ा उतरता जाता है। वैसे ही वैसे उस पर नये कर्म के दलिये-कर्म के परमाणु-लगते जाते हैं। थह लेप रागद्वेष रूपी चिकनाई से गाढा चिपका हुआ है / इसीलिए वह लेफ उखड़ नहीं जाता है। यदि यह चिकनाई दूर हो जाय तो, धीरे धीरे कर्म रूपी लेप भी दूर हो जाय / जबतक रागद्वेष रूपी चिकनाई कम न होगी, तबतक कर्म के परमाणु भी भिन्न नहीं होंगे। और जीव इसीतरह चौरासी लाख योनियों में रेंट की तरह फिरता रहेगा / इसलिए कर्म की दृढ़ता के कारणभूत रागद्वेष को कम करने का विचार करना चाहिए / अनुकूल वस्तु पर राग और प्रतिकूल वस्तु पर द्वेष होता है। मगर ऐसा होने के खास कारण की जाँच करेंगे तो मालुम होगा कि वह कारण मोह-प्रपंच है। पाठक ! आइए, सोचें कि इस मोहराना का प्रपंच कितना प्रबल होता है /
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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