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________________ (329) नहीं सोच सकता है कि ये रोग के उपद्रव में फँसने से या दुर्गति में जानेसे मुझ को नहीं बचा सकेंगे। पन्द्रहवीं गाथा में कहा गया है कि, ज्ञानी पुरुष ज्ञानद्वारा वस्तु तत्व को जानकर, सर्वज्ञ के मार्ग को ग्रहण करे / इसका अभिप्राय यह नहीं है कि सर्वज्ञ के मार्ग को मानने लग जाय / अभिप्राय यह है कि, मानकर तदनुसार आचरण करने लग जाय। धर्मार्थी हो, चारित्र धर्म के प्रति आत्मवीर्य का उपयोग करे / अथवा कर्मक्षय करने के लिए अमोघ शस्त्ररूप तप का आदर को / तप विचारपूर्वक करना चाहिए, ताकि उसमें किसी जीवको पीडा न हो / संसार में कई जीव ऐसे हैं जो, राज्य की, धन की या स्वर्ग की इच्छा कर सदोष तप करते हैं। कितने ही छ:काय की विराधना पूर्वक पंचाग्नि तप करते हैं। कई नर्मदा अथवा गंगा की सेवाल और मिट्टी खाकर तप करते हैं और ज्ञान के अभावसे महा पाप बाधते हैं / सेवाल में और मिट्टी में असंख्य, अनन्त जीव होते हैं। उनको वे नाश करते हैं / यद्यपि वे रसादि इन्द्रिय विषयों का त्याग कर, कष्टक्रिया करते हैं, इससे उनके अगळे भव में राज्यलक्ष्मी मिलती है। मगर उनका पुण्य पापानुबंधी पुण्य होता है, इसलिए वे राज्यलक्ष्मी पा, स्वार्थी मनुष्यों की संगति में पड़, धर्मसाधन के बजाय अधर्म का सेवन करते हैं और अन्त में विचारे नरकादि गति में जा कर जितना सुख भोगा होता है उससे भी अधिक दुःख का
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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