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________________ ( 306 ) मनुष्य भवांतर में नरक तिर्यंचादि गति में जाकर पराधीनता पूर्वक हजारों कष्ट सहते हैं / मगर यहाँ धर्म के लिए कष्ट नहीं सहते / यदि वे धर्म के लिए यहाँ थोडासा कष्ट सह ले तो उन्हें भवान्तर में अन्य विडंबनाएँ न सहनी पड़े / सारी उम्र धर्म न कर, मोह और अज्ञान के वश हो, अनेक प्रकार के अनर्थ दंडों का सेवन कर, महा पाप के कारणों को-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और महारंभादि को-आचरण में ला मनुष्य जन्म को व्यर्थ गमा देते हैं। फिर मरते समय हायवोय करने से क्या होता है ? जिसने धर्म का सेवन किया होता है उसके लिए मृत्यु विवाहोत्सव के समान सुखदायी जान पड़ती है। क्योंकि वह जानता है कि, अब उसको असार पदार्थ के बजाय सार पदार्थ मिलेगा। प्रायः देखा जाता है कि, मनुष्य जब एक पुराना और मलिन घर छोड़कर दैवयोग से भव्य महल में रहने को जाता है तब उसे बहुत प्रसन्नता होती है / इसी प्रकार यदि कोई, धर्मकृत्य किया हुआ मनुष्य होता है तो उसे भी ज्ञात होता है कि, मैं अब इससे भी अच्छी स्थिति में जाऊँगा; इसलिए मृत्यु से उसको कुछ भी कष्ट नहीं होता है। हाँ, धर्मकृत्य न कर मरण की शय्या पर सोते हुए जीव को अवश्य यह सोचकर मय लगता है कि, अब उसको नरकादि की खराब स्थिति में जाना पड़ेगा / इसीलिए शास्त्रकार उपदेश देते हैं कि,-" हे मनुष्यो ! विषय का
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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