________________ (261) विक तत्त्ववेत्ता पुरुष तो शान्ति के साथ राजा को हितकर वचन कहते ही हैं। पीछे राजा चाहे माने या न माने; राजा को अच्छे लगे या न लगें। कहा है कि: हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः / ( हितकर और मनोहर वचन दुर्लभ होते हैं। ) बस इसी लिए आत्मसाधक मुनियों को राजादि का संसर्ग नहीं करना चाहिए / ऐसा सूत्रकारोंने फर्माया है। वचनशुद्धि। अहिगरणकडस्स भिक्खुणो वयमाणस्त पसज्झ दारुणं / अढे परिहायति बहु अहिगरणं न करेज पण्डिए // 19 // सीओदग पडिदुगन्छिणो अपडिणस्स लवावसप्पिणो / सामाइय साहु तस्स जं जो गिहिमत्तसणं न भुञ्जति // 20 // ___ भावार्थ-क्लेश करनेवाले और क्लेश के कारणभूत वचनों को बोलनेवाले साधु चिरकाल से उपार्जन किये हुए मुक्ति के कारण को-चारित्र को नष्ट कर देते हैं / इसीलिए भलाई बुराई को समझनेवाले मुनि को कभी क्लेश नहीं करना चाहिए / चारित्रवान साधु वही होता है जो कभी सचित्त जल को काम में नहीं लाता है। नियाणा नहीं करता है; और कर्मबंध से