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________________ (239) महयं पलिगोव जाणिया जा विय वंदणपूयणा इहं / मुहुने सल्ले दुरुद्धरे विउमंता पयहिज्ज संथवं // 11 // एगे चरे ठाणमासणे सयणे एगे समाहिए सिया। मिक्खू उवठाणवीरए वइगुत्ते अज्जत्तसंवुडो // 12 // भावार्थ-लोकपूजा और वंदनादि मुक्ति मार्ग में कीचड़ के समान हैं / इस लिए साधु पुरुषों को चाहिए कि, वे उनको सूक्ष्म शल्य समझ कर उनसे दूर रहें, गृहस्थियों से ज्यादा परिचय न बढ़ावें और रागद्वेष रहित हो कर एकाकी भमि पर विचरण करे / काउसग्ग के स्थान, आसन, शयन आदि प्रत्येक स्थान पर साधु समाहिति रहे, तपोविधान में आत्म-वीर्य का गोपन न करें और वचनगुप्ति पूर्वक अध्यात्म में चित्त लगावें / सत्कार परिसह सहन करना बहुत कठिन है। लोकनिंदा का सहन करना सरल है; परन्तु पूजा और स्तुति का सहन करना बहुत ही कठिन है / इसी लिए सूत्रकारने अभिमान को मुक्ति के मार्ग में कीचड़ के समान बताया है। स्वाध्याय, जप, तप आदि उत्तम कार्यों को कलंकित करनेवाला भी अभिमान ही है। इस लिए साधुओं को वंदना और पूजनादि परिसह से दूर रहना चाहिए। और आसन, शयन आदि में अकेले रहना चाहिए / 'अकेले' शब्द का अर्थ समुदाय से दूर रहना नहीं.
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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