SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हो रही है। दूसरों को संतुष्ट करने के लिए कई लोग अपने धन और शरीर का त्याग करते हैं। मैं यदि सन्तोष पूर्वक मारन ताडन सह कर यदि मुझे मारनेवालों को सन्तुष्ट कर सकूँ तो इसके सिवा और अच्छी बात मेरे लिए क्या हो सकती है ? लोगों के सन्तोष के सामने मेरे पर पड़ने वाली मार मेरे लिए तुच्छ है।" मुमुक्षु को विचारना चाहिए कि,-"अमुकने मेरा तिरस्कार ही किया है, मुझ को मारा तो नहीं है।" मारा हो तो सोचना चाहिए कि-" इसने मुझ को पीटा ही है, मेरे प्राण तो नहीं लिये हैं। यदि प्राण ले लेगा तो भी मेरा धर्म तो नहीं ले सकेगा।" तात्पर्य कहने का यह है कि, कल्याणार्थी पुरुषों को सममावों से वध, वंधन, ताडन, तर्नन और आक्षेपादि को सहन करना चाहिए / इस तरह करने से साधुओं को कषायों का उद्भव नहीं होता है / खंधक मुनि के 499 शिष्यों को एक अभव्यने जिन्दा ही पानी में पील डाले तो भी उन्होंने कषायें नहीं की। इसी तरह से जो साधु संयम का पूर्णतया आराधन करते हैं वेही वास्तविक अहिंसा धर्म को पालनेवाले और अहिंसा के उपदेशक होते हैं / क्यों कि साधु, धर्म का उपदेशक होना चाहिए। सूत्रकार आगे कहते हैं:बहुजणणमणम्मि संवुडो सव्वद्वेहिं णरे अणिस्सिए / हरए व सया अणाविले धम्मं पादुरकासि कासवम् // 7 //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy