SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (210) इसलिए कर्म बाँधते समय विचार रखना चाहिए। यानी कोई ऐसी कृति नहीं करना चाहिए कि, जिससे उसके विपाकोदयके समय हाय, वोय न करना पड़े। शास्त्रकार अनेक युक्तियों से जीवों को पुकारकर समझाते हैं कि:-" हे जीव ! जरा तत्त्वदृष्टि से अपने हित का विचार कर / जो शुभ और अशुभ कर्म तूं करेगा उनके फल तुझ ही को भोगने पड़ेंगे। दुसरा उसमें कोई साथी नहीं होगा। पापसे तू जो धन इकट्ठा करेगा उसको लेनेवाले तो बहुतसे मिल जायेंगे; परन्तु पाप से जो दुःख होगा उसे लेनेके लिए कोई भी तैयार नहीं होगा। शायद कोई तुझ को प्रेम के वश कहेगा कि, मैं तेरे दुःखका आधा हिस्सा ले लूँगा; परन्तु वह ऐसा कर नहीं सकेगा। क्योंकि कृत का नाश और अकृत का आगमन सत्य मार्ग में नहीं होता है / इसलिए हे मुनि ! जगत् का प्रत्यक्ष जो विचित्र भाव है उसको देख ले।" ___ इस अपार असार संसार में जीव आधि व्याधि और उपाधि में गूंथे हुए हैं। इससे उनका जीवन दुःख के साथ बीतता है। यदि यही जीवन ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय के आराधन में बिताया जाय तो, कल्याण-मार्ग की प्राप्ति में कुछ भी देर न लगे।" मगर मोह रूपी मातंग-हाथी-जब तक जीवों के सिर पर
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy