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________________ ( 196 ). कृत्रिम पीडित साधु कंधे पर चढ़ गया। दूसरा कृत्रिम साधु उनके साथ साथ चला / जैसे जैसे ऋपि आगे बढ़ने लगे वसे ही वैसे कृत्रिम साधु अपनी देवी शक्ति द्वारा भार बढ़ाने लगा। मारे भार के नंदनऋषि की कमर एकदम झुक गई तो मी अपने मनोबल से वे हार न मान आगे बढ़ते ही गये। चलते हुए वे शहर के मध्य भाग में पहुंचे। वहाँ हजारों लोगों का आनाजाना था। बड़े सेठ साहुकारों की दुकाने थीं ! वहाँ पहुँचते कृत्रिम पीडित मुनिने दनऋषि पर महान् दुर्गंध फैलाने वाली विष्टा कर दी। दूसरे ऋषि का सारा शरीर खराब हो गया। दुर्गध से व्याकुल हो, अपना धंधा छोड़ लोग भागने लगे। चारों तरफ बड़ी घबराहट मच गई / मगर नन्दनऋषि कुछ भी विचलित नहीं हुए। वे सोचने लगे-" अहो ! ये मुनि बहुत रोगी हैं / इसी लिए रोग की पीड़ाने इनको क्रोधी बना दिया है / वास्तव में तो ये क्रोधी नहीं हैं। क्या प्रयत्न करने से इनका रोग शान्त हो जायगा ? " ऐसे सोचते हुए मुनि वहाँ से आगे बढ़े / देव उनको स्थिर देख कर बडे चकित हुए। पीडित मुनि स्कंध से कूद पडे / देव अपना दिव्य रूप धारण कर सामने खडे हो गये और कहने लगे:-' हे महामुनि ! हम सुधर्मा देवलोक के देव हैं। अब तक हमने आप का तिरस्कार किया और आप को सताया. इसके लिए आप हमें क्षमा कीजिए / सौधर्मेन्द्रने आप की प्रशंसा की थी। हमने उनकी
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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