________________ (173 ) जमिणं जगती पुढोजगा कैम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो / सयमेव कडेहिं गाहइ णो तस्स मुच्चेज पुट्ठयं // 4 // 3, ४-जो जीव माता पिता के मोह में मुग्ध होता है वह सुगति का भाजन नहीं होता है। प्रत्युत दुर्गति का भाजन होता है / जो जीव दुर्गति के दुःखों को ताड़न, छेदन, भेदन, तर्नन आदि को देखकर आरंभादि क्रियाओं से निवृत्त होता है वह व्रती कहलाता है / जो आरंभादि क्रियाओं से निवृत्त नहीं होते हैं वे प्राणि इस अनित्य और अशरण जगत् में अपने कर्मों द्वारा आप ही नष्ट हो जाता है क्योंकि किया हुआ कर्म फल दिये विना नहीं छोड़ता है। जो लोह की बनी हुई जंजीरें होती हैं वे शारीरिक बल से तोड़ी जा सकती हैं, परन्तु माता, पिता, पुत्र, स्त्री, धन और बन्धु रूपी पदार्थ से बनी हुई नीरें शारीरिक बल से कदापि नहीं टूटती हैं / उस को तोड़ने के लिए परम वैराग्य रूपी तीक्ष्ण कुठार की आवश्यकता पड़ती है। मोहासक्त मनुष्य की परलोक में तो दुर्गति होती ही है; परन्तु इस भव में भी वह सुख से आहार, निद्रा नहीं ले सकता है / उसका प्रत्येक समय हाय हाय करते ही बीतता है। मनुष्य जब सौ रूपये की आशा करके कोई कार्य प्रारंभ करता है और उस को सौ मिल जाते हैं सब दूसरी वार वह हमार प्राप्त करने की आशा में लगता है।