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________________ ( 191) दम्पती पितरः पुत्राः सोदर्यः सुहृदो निजाः / ईशा भृत्यास्तथान्येऽपि माययाऽन्योन्यवञ्चकाः // भावार्थ-माया से पुरुष अपनी स्त्री को, स्त्री अपने पति को; भाई भाई को, मित्र को, स्वामी सेवक को, और सेवक स्वामी को ठगते हैं / इस तरह परस्पर के प्रगाढ संबंधी भी एक दूसरे को ठगते हैं। ___जीव अपने अपने स्वार्थ के लिए प्रपंच रचते हैं / यह एक बडी मजे की बात है कि, जिन को हम मूर्ख समझते हैं वे ही अपने स्वार्थ के समय बहुत ज्यादा बुद्धिमान हो जाते हैं। उदाहरणार्थ-हम देखते हैं कि बगुला जब पानी पर जाता है तब तरकीब से पैर उठाता है कि, पानीमें थोडासा भी हलन चलन नहीं होता है; परन्तु ज्योहि वह मछली को या मेंडक को देखता है ऐसी चोंच मारता है कि उस की सारी भक्ताई हवा हो जाती है। यह एक सामान्य उदाहरण है / स्वार्थीध मनुष्य सब इसी तरह के होते हैं। माया को जीतने का उपाय / शास्त्रकार कहते है कि:-" स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता / " (स्वार्थ का नष्ट होना मर्खता है / ) मगर इस में जो 'स्व' शन्द आया है उस का अर्थ है 'आत्मा' / इस लिए आत्मा के
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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