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________________ नीति-शिक्षा-संग्रह 103 इधर की उधर कहने की आदत मत डालो / ऐसे भादमी कुछ दिनों बाद दोनों ओर के नहीं रहने पाते। 104 अपने अध्यापक को अत्यन्त पूज्य दृष्टि से मानो, क्योंकि ज्ञानदाता आपके लिये वही हुआ है, अतएव उसकी इज्जत करो। 105 चौरी, व्यभिचार और जुआ आदि निंद्य कार्य भी देश की सभ्यता को कलंकित करनेवाले हैं, अतएव इन्हें रोकने का प्रयत्न करो। 106 छड़ी, बेत, लकड़ी आदि को हाथ में लेकर व्यर्थ हो हिलाते हुए या घुमाते हुए मत चलो। इससे चित्त का. चांचल्यभाव प्रकट होता है / उस छड़ी से मार्ग में के कुत्तों .पशुभों पर प्रहार मत करो। 107 किसी वस्तु को देखकर उसे अकारण ही माँगने मत लग जायो / क्योंकि शायद वह उसके न देने की हुई तो पापके माँगने के कारण उसे कष्ट होगा और यदि उसने नहीं दी तो आपके चित्त को दुःख होगा। 108 वी० पी० मँगाकर लौटा देना अनुचित है। यदि लौटाना ही है तो मत मँगाओ। पहिले विचार लो, बादमें वी०पी० मँगाने का ऑर्डर दो। इस तरह से विश्वास जाता है। साथ ही आपका तो खेल हो जाता है और दृकानदार का डाक खर्च प्रेकिंग मेहनेत वगैरः बर्बाद हो जाता है।
SR No.023532
Book TitleNiti Shiksha Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBherodan Jethmal Sethiya
PublisherBherodan Jethmal Sethiya
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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