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________________ (32) सेठिया जैन ग्रन्थमाला की प्रतिकूलता से उसे मिष्फल होना पड़ा हो क्योंकि विद्या पढ़ने में भी कर्मों का क्षयोपशम + अपेक्षित है। जैन शास्त्रों में कर्म के आठ भेद बताये गये हैं। उनमें एक ज्ञानावरण कर्म है। वह ज्ञान को रोकता है। ज्यों ज्यों इस का क्षयोपशम होता है, त्यों त्यों ज्ञान का विकास होता जाता है / इसीसे कोई कोई छात्र थोड़े परिश्रम से ही अधिक विद्या सम्पादन कर लेते हैं और कोई कोई बहुत परिश्रम करने पर भी मूर्ख बने रहते हैं / धनोपाजन में भी कर्म का नियम लागू होता है / कितने लोग धनार्जन के लिए रात दिन नहीं गिनते। फिर भी दरिद्रता उनका पीछा नहीं छोड़ती। स्वामी और सेवक में से सेवक ही अधिक परिश्रम करता है और वही गरीब भी होता है / इसका कारण कर्म है। बीर०-अच्छा मां, जब केवल परिश्रम करने से ही सफलता नहीं मिलती तो परिश्रम करना व्यर्थ है। क्योंकि मैंने किसी कार्य की पूर्ति का उद्योग किया और यदि कर्म अनुकूल न हुआ तो सारी मिहनत मिट्टी में मिल गयी। माता-नहीं बेटा, यह बात नहीं है / जैसे गाड़ी का पहिया घूमता रहता है, वह एकसा-स्थिर नहीं रहता वैसे ही कर्म भी प्रतिक्षण बदलते रहते हैं / यदि तुम सदा परिश्रम + प्रत्येक कर्म की दो प्रकार की प्रकृतियां होती हैं / (1) सर्वघाती प्रकृतियां और (2) देशघाती प्रकृतियां / जब सर्वघाती प्रकृतियां विना फल दिये ही क्षय हो जाती हैं,आगे उदय में आने वाली प्रकृतियां शान्त रहती हैं और देशघाती प्रकृतियों का उदय रहता है तो उस अवस्था को क्षयोपशम कहते हैं।
SR No.023532
Book TitleNiti Shiksha Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBherodan Jethmal Sethiya
PublisherBherodan Jethmal Sethiya
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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