SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 498
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (30) सेठिया जैन ग्रन्थमाला प्रकाश से तुम्हारे द्वार पर आवे और तुम उसे नैराश्य के अंधकूप में ढकेल दो तो उसे उतना ही दुःख होता है जितना किसी की छाती में छुरा भोंक देने से / कोई विधवा स्त्री अपने इकलौते बेटे से मिलने जाती हो और वह वहां पहुंचकर सुने कि उसका देहावसान हो गया है तो उसे जैसी मार्मिक वेदना होती है, वैसी ही वेदना नकार भरे तिरस्कार से भिखारी को होती है। अतः उसे निराश न करो / कहा भी है सब से पहले वे मुये, जो कहुं मांगन जाहिं / उनते पहले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि // हां, तुम यह कैसे कह सकते हो कि वह झूठ बोलता था। वीर०-वह कहता था कि मेरे गुरु ने बड़ा परिश्रम किया,मैं ने बहुत माथापच्ची की पर पढ़ न सका / यह कैस सच हो सकता है ? मैंने पढ़ा है कि जो परिश्रम करता है, सफलता उसकी दासी हो जाती है। परिश्रमी को कोई कार्य असाध्य नहीं होता। मां! उसने परिश्रम किया होता तो अवश्य पढ़ लिख जाता। माता-बेटा! तू ने जो पढ़ा हे वह सत्य है, परन्तु तुझे उसका रहस्य ज्ञात नहीं हुआ। बात यह है कि छोटे से छोटे और बड़े से बड़े कार्य के सम्पादन के लिये परिश्रम को श्रावश्यकता है,परन्तु केवल परिश्रम से ही कार्य में सफल लता नहीं मिलती / जैसे देखने के लिये नेत्र की अनिवार्य आवश्यकता है, उसके विना कोई कुछ नहीं देख सकता, किन्तु नेत्र होने पर भी अचेतन शरीर नहीं देख सकता।
SR No.023532
Book TitleNiti Shiksha Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBherodan Jethmal Sethiya
PublisherBherodan Jethmal Sethiya
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy