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________________ हूँ; क्योंकि संसार रूपी दावानल में संतप्त जीवों के लिये आपका ही समागम विश्राम-स्थान होने से आनन्द कारक है। इस प्रकार उस ब्राह्मण का चित्त संसार से उद्विग्न और वैराग्यवान देख कर विधिपूर्वक उन महात्मा ने उसको पारमेश्वरी दीक्षा दे दी। फिर वह ब्राह्मण सन्त सेवा में रह कर आत्मीय ज्ञान का संपादन करने लगा, एवं निरतिचार (निर्दोष) धर्मानुष्ठान का परिपालन करता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त हुआ। । सत्संग की महिमा 'सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ? संसरणशील संसार में सज्जनों का संग क्या नहीं कराने योग्य है, अर्थात् इहलोक में सानन्द आयु को बिताकर अन्त में कैवल्य प्राप्ती कराने का यह एक ही उपाय है। शास्त्रकारों ने भी इस महिमा का वर्णन किया है कि'चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः। चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये, शीतला साधुसङ्गतिः।।१।। साधुसङ्गतयो लोके, सन्मार्गस्य प्रदीपकाः। हार्दान्धकारहारिण्यो, भासो ज्ञान विवस्वतः' ।।२।। ___ भावार्थ संसार में चन्दन शीतल कहा जाता है, और चन्दन से भी विशेष चन्द्रमा शीतल माना गया है, परन्तु चन्दन और चन्द्रमा से भी उत्तम सत्संग ही बतलाया है। इस लोक में साधुसमागम ही सन्मार्ग का दीपक और चित्ताऽऽकाश में परिपूर्ण अज्ञानान्धकार घटा को दूर कर ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश है। वाचकवर्ग! यह सत्संग की ही महिमा है कि नाना वृक्षलताओं से सुशोभित विविध फल पुष्पों से प्रफुल्लित रमणीय अरण्य में चन्दनवृक्ष के समीपवर्ती अन्य पादप भी चन्दन वृक्ष की अपूर्व सुगंध से चन्दनवृक्षवत् हो जाते हैं। सत्संगति की ही महिमा है कि जो मणि सर्प के मस्तक पर रह कर नाना चोटों को खाया करती है पुनः वही राजा के मुकुट में वासकर सुशोभित हो सत्कार का भाजन बनती है। सत्संगति की ही महिमा का प्रताप है कि जो पुष्प अधम माली के हाथ से लालित पालित हुआ भी भगवान के शरण में ७४ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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