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________________ 'श्रीपुर' नगर में नितिनिपुण और सप्ताङ्ग राजलक्ष्मी से अलङ्कत 'तत्त्वसिंह' नामका राजा राज करता था। उसी नगर में राजमाननीय और वणिग्जाति में अग्रगण्य 'धन्नूलाल' नामक चौधरी रहता था। किसी विदेशी सेठ ने लोगों के द्वारा सुना कि 'श्रीपुर' नगर व्यापार का और राजनीति का केन्द्र है। अतएव वहाँ जा कर 'यावबुद्धिबलोदयम्' व्यापार में उन्नति प्राप्त करूं, ऐसा विचार कर अपने विनीत कुटुम्ब के सहित 'श्रीपुर' में आया और बीच बाजार में दुकान लेकर ठहरा। भाग्यवशात् अल्पकाल में ही करोड़ों रुपये कमाये, इतना ही नहीं किन्तु धन के प्रभाव से सब साहूकारों में मुख्य माना जाने लगा। यहाँ तक कि पंच पंचायती या पानड़ी वगैरा कोई भी कार्य इस सेठ को पूछे विना नहीं हो सकते थे। और राज्य में भी इसका प्रभाव अच्छा जम गया, क्योंकि धन का प्रभाव ही इतना तीव्रतर है कि-धन सब योग्यताओं को बढ़ा कर प्रशस्य बना देता है। यथा'वन्द्यते यदवन्द्योऽपि, यदपूज्योऽपि पूज्यते। गम्यते यदगम्योऽपि, स प्रभावो धनस्य तु।।१।।' भावार्थ-जो नमस्कार करने के योग्य नहीं है वह नमस्कार करने योग्य बनता है, और जो अपूज्य है वह भी पूज्य बनता है, तथा जो अगम्य-परिचय के अयोग्य है वह परिचय करने योग्य बनता है; यह सब धन का ही प्रभाव है। अर्थात् जो अटूट धनवान् होता है वह प्रायः कुलीन, पण्डित, श्रुतवान्, गुणज्ञ, वक्ता, दर्शनीय, वन्द्य, पूज्य, गम्य और श्लाघ्य समझा जाता है। बहुत क्या कहा जाय विद्यावृद्ध, राजा, महाराजा आदि सब लोग प्रायः धनी के आधीन रहते हैं। अत एव उस विदेशी सेठ का प्रवेश सब जातियों और राज्य में परिपूर्ण रूप से जम गया, और सारे शहर में उसी की प्रशंसा होने लगी। परन्तु ‘गाँव तहाँ ढेडवाड़ा होय' इस कहावत के अनुसार जहाँ सज्जनों की बहुलता होती है, वहाँ प्रायः दो चार दुर्जन भी हुआ करते हैं इसलिये सेठ का अभ्युदय देख 'धन्नूलाल' चौधरी से रहा नहीं गया ५० श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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