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________________ या अपनी प्रशंसा के वास्ते धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, और जो अपनी बात रखने के लिये सद्गुरुओं की अवहेलना (तिरस्कार) करते हैं और जो अपने गच्छ के ममत्व में पड़ कर जाति या धर्म में विग्रह फैलाते हैं, और जो मद् मात्सर्य आदि अनेक दुर्गुणों में लीन रहते हैं। वास्तव में द्रव्यजैन दृष्टिरागान्ध हो कर वास्तविक धर्म से पराङ्मुख रहते हैं। 'भावजैन' उन को कहते हैं जो अनन्त सुखात्मक जिनाज्ञाओं का पालन करते हैं, तथा कषायभाव से अपनी आत्मा को बचाकर हर एक सुकृत कार्य में प्रवृत्त होते हैं, और निरपेक्ष हो कर गुणीजनों की प्रशंसा, जिनेश्वरों की आराधना और सत्तत्वों का अभ्यास करते हैं। तथा जिह्वा को नियम में रख कर मधुर और सत्यवचन बोलते हैं; एवं किसी का मर्मोद्घाटन नहीं करते और जो आपत्तिकाल में भी धर्म को नहीं छोड़ते और जो दुराचारियों की संगति छोड़ कर सबके साथ समभावपूर्वक उचित व्यवहार रखते हैं, तथा जो स्वधर्मी को अपने भाई से भी अधिक सम्मान देते हैं, और जो वैभव में मान अथवा दरिद्रता में दुःख लेशमात्र भी नहीं रखते, एवं जो शत्रु की भी निन्दा नहीं करते तथा जो अपनी सभ्यता का कभी त्याग नहीं करते। भावजैनों का हृदय उदार, गंभीर और गुणानुरागसंपन्न होता है, इसी से वे दृष्टिराग में न पड़कर सत्समागम और सत्यमार्ग पर कटिबद्ध रहते हैं। महानुभावो! शास्त्राकारों ने द्रव्यजैन और भावजैनों का स्वरूप अनेक प्रकार से प्रतिपादित किया है, यदि वह यहाँ लिखा जाय तो ग्रन्थ बहुत बढ़ जाने की संभावना है इसलिये यहाँ संक्षेप से दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। वर्तमान समय में द्रव्यजैन प्रायः विशेष दिखाई देते हैं परन्तु बुद्धिमानों को चाहिये कि भावजैनत्त्व के गुणों को धारण करें क्योंकि भावजैनत्त्व के बिना आत्मसुधार नहीं हो सकता, इससे कदाग्रह और आत्मश्लाघा को छोड़कर गुणानुरागी बनो, और उत्तरोत्तर सद्गुणसंग्रह करने में प्रयत्नशील रहो, जिससे आत्मकल्याण होवे। श्री गुणानुरागकुलक ४१
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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