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________________ अनेक प्रकार के कष्टसाध्य कार्य को (करिसि) करता है, परन्तु (परेसु) दूसरों के विषे (गुणानुरायं) गुणानुराग को (न) नहीं (धरिसि) धारणा करता है (ता) तिससे (सयलं) पूर्वोक्त सब परिश्रम (निष्फलं) निष्फल हैं। विवेचन-गुणानुराग का इतना महत्त्व दिखलाने का कारण यही है कि इसके विना तप करने, श्रुत अर्थात् शास्त्र पढ़ने और अनेक कष्ट साध्य कार्यों के करने का यथार्थ फल नहीं मिलता तथा न दूसरे सद्गुणों की प्राप्ती होती है। अभिमान, आत्मप्रशंसा और ईर्षा ये दोष हर एक अनुष्ठान के शत्रुभूत है। संसार में लोग घर, राज्य, लक्ष्मी आदि माल मिलकियत छोड़ कर अनेक प्रकार के तपोऽनुष्ठान करने में अड़ग (प्रगल्भ) बने रहते हैं, तथा स्वाधीन स्त्रियों के स्नेह को छोड़ना भी कुछ कठिन नहीं समझते एवं व्याकरण कोष—काव्य-अलार ज्यायवेदान्त-आगम-निगम आदि शास्त्रों को पढ़ कर विद्वत्ता भी प्राप्त कर लेते हैं और अनेक कष्ट उठाते हैं परन्तु प्रायः अभिमान, स्वप्रशंसा, परनिन्दा और ईर्षा आदि दोषों को नहीं छोड़ सकते। यह बात कही हुई भी है किकंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। मान बड़ाई ईर्षा, दुरलभ तजनी एह।।१।। इसलिये अभिमान को छोड़ कर गुणानुराग पूर्वक जो अनुष्ठानादि क्रिया की जाये तो वे फलीभूत हो सकती हैं, क्योंकि दूसरों के गुणों पर अनुराग या उनका अनुमोदन करने से निर्गुण मनुष्य भी गुणवान् बन जाता है। हर एक दर्शनकारों का मुख्य सिद्धान्त यह है कि अभिमान और मात्सर्य, विनयशील-तप-सन्तोष आदि सद्गुणों के घातक और सत्यमार्ग के कट्टर द्रोही हैं। अभिमान से गुणी जनों के सद्गुणों पर अनुरागी न बन कर दुर्गति के भाजन बनते हैं और इसी के आवेश में लोग दृष्टिरागी बनकर 'मैं जो कहता हूँ या करता हूँ सोही सत्य है, बाकी सब असत्य है' ऐसी भ्रान्ति में निमग्न हो विवेकशून्य बन जाते हैं। दृष्टिराग से अन्धे लोग सत्य के पक्षपाती न बन कर असदाग्रह पर आरूढ़ रहते हैं अर्थात्-वीतराग भगवान के वचनों श्री गुणानुरागकुलक ३६
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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