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________________ भावार्थ दूसरों का तिरस्कार (अपमान) तथा दूसरों की निन्दा और आत्मप्रशंसा से नीच गोत्र नामक कर्म का बन्ध होता है, जो अनेक भवकोटी पर्यन्त दुर्मोच हो जाता है अर्थात् बहुत मुस्किल से छूट सकता है। इसलिये परनिन्दा, परापमान और आत्मोत्कर्ष को सर्वथा छोड़कर आत्मा को कारुण्यभावना से प्रभावित करना चाहिये। ® माध्यस्थ्य भावना ® क्रूरकर्मसु निःशएं, देवतागुरुनिन्दिषु । आत्मशंसिषु योपेक्षा, तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् । १३२। भावार्थ-निःशङ्क होकर कूर कर्म करने वाला, तथा देवता और गुरु की निन्दा करने-वाला, एवं आत्मश्लाघा (अपनी प्रशंसा) करने वाला निकृष्ट जीव माना गया है, ऐसे जीवों पर भी अपेक्षा करना 'माध्यस्थ्य भावना' मानी गयी है। विवेचन संसार में लोग भिन्न-भिन्न प्रकृतिवाले होने से परभव में होने वाले दुःखों की परवाह न कर कुत्सितकर्म (निन्दनीयव्यापार) या देव गुरु की निन्दा और अपनी प्रशंसा तथा दूसरों का अपमान करने में उद्यत रहते हैं। परन्तु उन पर बुद्धिमानों को समभाव रखना चाहिये, किन्तु उनकी निन्दा करना अनुचित है। जिनेश्वरोंने यथार्थरूप से वस्तुस्वरूप दिखलाने की मना नहीं की किन्तु निन्दा करने की तो सख्त मनाई की है। सदुपदेश देकर लोगों को समझाने की बहुत आवश्यकता है, परन्तु हित शिक्षा देने पर यदि कषायभाव की बहुलता होती हो तो मध्यस्थभाव रखना ही लाभकारक है। अतएव निन्दा विकथा आदि दोषों को सर्वथा छोड़कर निन्दक और उद्धत मनुष्यों के ऊपर मध्यस्थभाव रखना चाहिये और यथाशक्ति समभाव पूर्वक हर एक प्राणी को हित शिक्षा देना चाहिये। इस प्रकार कलहभाव को छोड़ने से मनुष्यों के हृदय भवन में चार सद्भावनाएँ प्रकट होती हैं और इन सद्भावनाओं के प्रभाव से मनुष्य सद्गुणी बनता है। श्री गुणानुरागकुलक २७
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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