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________________ सकता, न हृदयक्षेत्र की शुद्धी हो कर गुणानुराग का अंकुर ही ऊग सकता है। * कलह * चौथा दुर्गुण 'कलह' है; जो कुसंप बढ़ाने का मुख्य हेतु है। यह वात तो निश्चय पूर्वक कही जा सकती है कि जहाँ संप नहीं है, जहाँ मिलन स्वभाव नहीं है, जहाँ सभी नेता हैं, जहाँ कोई किसी की आज्ञा में नहीं चलता, अथवा जहाँ मनमाने कार्य करने वाले हैं, वहाँ संपत्ति और सद्गुणों का अभाव ही है। लोगों की कहावत है किजहँ सब संप रमत हैं, तहँ सुखवास लहरी। जहँ चलत फूट फजीता, तहँ नित टूट गहरी।।१।। यह कहावत बहुत ही उत्तम है, क्योंकि जिसके यहाँ कलह (कुसंप) उत्पन्न हुआ कि उसका दिनों दिन घाटा ही होगा, परन्तु उसका अभ्युदय किसी प्रकार नहीं हो सकता। क्योंकि कलह करने वाला मनुष्य सब किसी को अप्रिय लगता है इससे उसके साथ सब कोई घृणा रखते हैं, अर्थात् उसको अनादर दृष्टि से देखा करते हैं। अत एव जहाँ संप है, अर्थात् जहाँ सब कोई संप सलाह से वर्ताव रखते हैं, वहाँ अनेक संपत्तियाँ स्वयं विलास किया करती हैं। निर्बल संघ भी अगर संपीला हो तो बड़े बड़े वलिष्ठों से भी उस की हानि नहीं हो सकती। और जो सबल संघ (समुदाय) कुसपीला होगा तो वह एक निर्बल तुच्छ मनुष्य से भी परावभ को प्राप्त हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संप से जितना कार्य सिद्ध होगा उतना कलह से कभी नहीं हो सकता। क्योंकि कलह सब संपत्तियों का विनाशक है, और कार्य सिद्धि का शत्रु है। इसलिये हर एक की उन्नति अपनी-अपनी ऐक्य (संप) के ऊपर स्थित है। जो इस ऐक्य के सूत्र को छिन्न भिन्न करते हैं वे मानो कट्टर शत्रु को अपने घर में निवास कराते हैं, क्योंकि विना छिद्र पाये शत्रु घर के अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। तो यदि सब एक प्राण हो धातृभाव धारण कर सत्य मार्ग को प्रकाशित करें तो किसका सामर्थ्य है कि उनके अंगीकार किये हुए मार्ग पर ठवका लगा सके। जो लोग कलह के वश में पड़े हैं, वे हजार उपाय करें तो २२ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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