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________________ अहो लोगो ! तुम्हें मनुष्य अवतार मिला है, सुकृत कार्य करने में उद्यत हो, मोहान्ध बन कर प्रमादवश से सुरक्ष्य मनुष्य भव को व्यर्थ न गमाओ कुक्कुट के वचन को सुनकर कितने एक पारमेश्वरीय ध्यान में, कितने एक विद्याभ्यास में, और प्रभु भजन में लीन हो मनुष्य जीवन को सार्थक करते हैं। अतएव उसे गुणहीनों के समान न समझना चाहिये। पण्डित ने कहा तो गुणहीन 'मनुष्यरूपाः खलु मक्षिकाः स्युः' मनुष्यरूपवाला मक्षिका समान है। उस पर भी वादी ने मक्खी का पक्ष लेकर कहा कि सर्वेषां हस्तयुक्तयैव, जनानां बोधयत्यसौ । ये धर्मं नो करिष्यन्ति, घर्षयिष्यन्ति ते करौ ।।६।। भावार्थ- सब लोगों को हाथ घिसने की युक्ति से मक्षिकाएँ निरन्तर उपदेश करती हैं, कि जो धर्म नहीं करेंगे वे इस संसार में हाथ घिसते रहेंगे । निर्गुणी मनुष्य तो उपकार शून्य है, मक्षिका तो सब का उपकार करती हैं। उनका मधु अमृत समान मीठा, रोगनाशक और बलवर्द्धक है, इसलिये गुणहीन मक्षिका के समान भी नहीं हो सकता । तब धनपाल पण्डित ने कहा तो गुणहीन 'मनुष्यरूपेण भवन्ति वृक्षाः' मनुष्यरूप से वृक्ष सदृश होते हैं। प्रतिवादी ने वृक्षों का पक्ष लेकर कहाछायां कुर्वन्ति ते लोके, ददते फलपुष्पकम् । पक्षिणां च सदाधाराः, गृहाऽऽदीनां च हेतवः | १०| भावार्थ–वृक्ष लोक में छाया करते हैं, फल पुष्प आदि देते हैं, और पक्षियों के घर उनके आधार से रहते हैं और मकान आदि बाँधने में वृक्ष हेतुभूत हैं। उष्णकालसंबन्धि भयंकर ताप, चौमासा में भूमि की वाफ और जलधारा से हुई वेदना, जंगल में सर्वत्र फैली हुई दावानल की पीड़ा और छेदन, भेदन आदि दुःखों को वे सहकर भी दूसरों के लिये श्री गुणानुरागकुलक १८१
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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