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________________ अवतार लेकर विद्या नहीं पढ़ते, अथवा तपस्या नहीं करते, किंवा हीन दीन और दुःखियों को सहायता नहीं देते, एवं आचार विचार और वीर्यरक्षा नहीं करते, तथा सहनशीलता आदि सद्गुण नहीं धारण करते और आत्मधर्म में नहीं रमण करते, उनको यथार्थ में मनुष्य आकार में मृग ही समझना चाहिये। जिस प्रकार मृग घास खा कर अपने जीवन को पूरा करता है, वैसे ही गुणहीन मनुष्य भी खा पीकर अपने अमूल्य और दुष्प्राप्य जीवन को खो देता है। पंडितों की बात सुनकर किसी दूसरे पण्डित ने मृग का पक्ष लेकर कहा कि सभा में नीति विरुद्ध बोलना बिलकुल अनुचित है। निर्गुणी मनुष्य को मृग सदृश समझना भारी भूल है, क्योंकि मृगों में तो अनेक प्रशस्य गुण होते हैं। देखिये-गायन सुनानेवालों को शिर, लोगों को मांस, ब्रह्मचारियों को चर्म, योगियों को सींग, मृग ही देते हैं और स्त्रियों को उनके ही नेत्रों की उपमा दी जाती है, इसी से स्त्रियाँ 'मृगाक्षी' कहलाती हैं। तथा मृगों की कस्तूरी उत्तम कार्यों में काम आती है, और बल पुष्टि के लिये सहायक होती है। अत एव कितने ही उपदेशक कहते हैं कि'दुर्वांकुरतृणाऽऽहाराः, धन्यास्ते वै वने मृगाः ।। विभवोन्मत्तमूर्खाणां, न पश्यन्ति मुखानि ये ।।२।।' __भावार्थ वे नवीन दूर्वा के अंकुर और घास खाने वाले वन में मृग धन्य हैं जो धन से उन्मत्त मूरों के मुख नहीं देखते। अर्थात् जो धर्म कार्य में धन नहीं खर्च करते और अभिमान में उन्मत्त रहते हैं उनसे अरण्यस्थि घास खाने वाले मृग ही ठीक हैं जो कि वैसे पापीजनों का मुँह नहीं देखते। अतएव निर्गुणी मनुष्यों को मृग के समान नहीं समझना चाहिये। तब धनपाल ने विचार करके कहा कि जब ऐसा है तो निर्गुणी मनुष्यों को–'मनुष्यरूपाः पशवश्चरन्ति' मनुष्य रूप से पशु सदृश कहना चाहिये। तदनन्तर प्रतिवादी पण्डित ने पशुओं में से गौ का पक्ष लेकर कहा कि यह बात भी बिलकुल अनुचित है, सभ्यसभा में ऐसा कहना नीतिविरुद्ध है, क्योंकि'तृणमत्ति राति दुग्धं, छगणं च गृहस्य मण्डनं भवति। रोग पहारि मूत्रं, पुच्छं सुरकोटिसंस्थानम्।।३।।' श्री गुणानुरागकुलक १७७
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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