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________________ की श्रद्धा तथा गुणप्रेमी हुए बिना धार्मिक तत्त्वों को समझने का साहस करना आकाशकुसुमवत् है । स्वाभाविक हृदयपवित्रता अन्तर्हेतुओं को पुष्ट करने वाली और औन्नत्यदशा पर चढ़ाने वाला होती है। इस भारतभूमि के एक कोणे में अनेक विद्वान् जन्म लेकर विलय हो चुके हैं और अब भी हो रहे हैं, लेकिन प्रशंसा उन्हीं की है जो स्वानुभव के योग से अन्तरङ्ग प्रेम रख कर गुणप्रशंसा करने में अपने अमूल्य समय को व्यतीत करने में उद्यत हैं। शास्त्रकार महर्षियों का तो यहाँ तक कहना है कि—– निर्दोषचारित्रवान् और सिद्धान्तपारगामी होने पर भी यदि चित्तवृत्ति निन्दा करने की ओर आकर्षित हो तो उसे मोक्ष सुख का रास्ता मिलना दुर्घट है, और जो शिथिलाचारी है परन्तु वह गुणनुरागी है तो उसे शिवसुख मिलजाना कठिन नहीं है। इसी विषय की पुष्टि के लिये यहां एक दृष्टान्त लिखा जाता है उसे वाचकवर्ग मनन करें । कुसुमपुर नगर के मध्य में किसी श्रीमन्त सेठ के घर में दो साधु ठहरे। एक मेड़ी पर और एक नीचे ठहरा। ऊपरवाला साधु पंचमहाव्रतधारी, शुद्धाहारी, पादचारी, सचित्तपरिहारी, एकल विहारी आदि गुणगण विभूषित था, परन्तु केवल लोकैषणा मग्न था । नीचे उतरा हुआ साधु, था तो शिथिलाचारी, लेकिन गुणप्रेमी निर्मायी और सरलस्वभावी था । भक्त लोग दोनों साधुओं को वन्दन करने के लिये आये, प्रथम नीचे उतरे साधु को वन्दन कर फिर मेड़ी पर गये । उपरिस्थित साधु को यह बात मालूम हुई कि ये नीचे वन्दन करके यहाँ आये हैं, अतएव उसने भक्त लोगों से कहा कि-पार्श्वस्थों को वन्दन करने से महापाप लगता है, तथा भगवान की आज्ञा का भंग होता है, और संसार - वृद्धि होती है। नीचे जो साधु ठहरा हुआ है उसमें चारित्रगुण शिथिल है, उसके आचरण प्रशंसा के लायक नहीं हैं, इसलिये ऐसों के वन्दन से संसारपरिभ्रमण कम नहीं हो सकता। भक्त लोग हाँ-हाँजी कर नीचे उतरे, और सब वृत्तान्त नीचे के साधु से कह दिये । भक्त लोगों की बातें सुनकर निचला साधु कहने लगा कि—' ऊपर के पूज्यवर्य महाभाग्यशाली, सूत्रसिद्धान्तपारगामी, श्री गुणानुरागकुलक १६१
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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