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________________ त्रिवर्ग की साधना है, अतएव गृहस्थों के लिए त्रिवर्ग के साथ मोक्ष शब्द रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब परस्पर अविरोधपन त्रिवर्ग को साधन करने की मर्यादा दिखाई जाती है जो अहर्निश धर्म और अर्थ को छोड़कर कामपुरुषार्थ की ही साधना करने में लगे रहते हैं वे वनगज के समान पराधीन हो दुःखी होते हैं। जैसे वनगज स्वजीवित को हरा कर मरण दशा को प्राप्त होता है, उसी प्रकार कामाऽसक्त मनुष्य का भी धर्म, धन और शरीर नष्ट हो जाता है, इसलिए केवल कामसेवा करना अनुचित है। जो मनुष्य धर्म तथा काम का अनादर कर केवल अर्थ - सेवा की अभिलाषा रखते हैं, वे सिंह के समान पाप के भागी होते हैं। सिंह हस्तिप्रमुख पशुओं को मारकर स्वयं थोड़ा खाता है और अवशेष दूसरों के लिए छोड़ देता है। इसी तरह अर्थसाधक पुरुष भी अठारह पापस्थानक सेवनकर वित्तोपार्जन करते हैं, उसको स्वयं अल्प खाकर शेष संबंधियों के लिए छोड़ते हैं, किन्तु स्वयं उस वित्तोपार्जन से दुर्गतियों के पात्र बनते हैं। अत एव केवल अर्थसेवा करना भी अनुचित है। इसी प्रकार अर्थ और काम को छोड़कर केवल धर्मसेवा करने से भी गृहस्थ धर्म का अभाव होता है, क्योंकि केवल धर्मसेवा करना मुमुक्षुजनों (संसार त्यागियों) का काम है, यहाँ पर तो गृहस्थों का अधिकार है, इससे केवल धर्मसेवा करना गृहस्थों के लिए अनुचित है। जो लोग धर्म को छोड़कर अर्थ और काम की सेवा करते हैं वे बीज खा जाने वाले 'कणवी' के समान पश्चात्ताप और दुःख के पात्र बनते हैं। किसी कणवी ने अत्यन्त परिश्रम से धान्य (बीज) संग्रह कर उस को खा खुटाया, परन्तु वर्षा समय में खेत में बीज नहीं बो सका, इससे धान्य का अभाव हो गया और धान्याभाव से नाना दुःखों की नोबत बनने लगी। उसी प्रकार धर्म के बिना अर्थ और काम की सेवा करने वालों की दशा होती है। क्योंकि धर्म अर्थ और काम का बीज है, अर्थात् धर्म के प्रभाव से ही अर्थ व काम की प्राप्ति होती है। अतएव धर्म की सेवा किये बिना इतर पुरुषार्थों की सेवा करने वाला कणवी के समान दुःखी होता है । १४६ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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