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________________ प्राप्ति का हेतुभूत धर्मश्रवण करना चाहिये, जिससे उभय लोक में सुख प्राप्त हो। 'अजीर्णे भोजनत्यागी, काले भोक्ता च साम्यतः । अन्योन्याप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयेत् ।।६।।' भावार्थ–१५, अजीर्ण में भोजन छोड़नेवाला पुरुष सुखी रहता है और सुखी मनुष्य धर्म की साधना भले प्रकार कर सकता है। इसी से व्यवहारनय का आश्रय लेकर कई एक लोग कहते हैं कि-'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' वस्तुस्थिति के अनुसार तो ऐसा कहना उचित है कि-'शरीरमाद्यं खलु पापसाधनम्' अर्थात् शरीर प्रथम पाप का कारण है। जिनके शरीर नहीं है उनके पाप का भी बन्ध नहीं होता, सिद्धभगवान् अशरीरी होने से पापबन्ध रहित हैं, अतएव शरीर पाप का कारण और पाप शरीर का कारण है। जहाँ शरीर का अभाव है, वहाँ पाप का अभाव है और जहाँ पाप का अभाव है वहाँ शरीर का अभाव है। इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक व्याप्ति है, तो भी व्यवहारदृष्टि का अवलम्बन कर शरीर को प्रथम धर्मसाधन माना है। इसीलिये अजीर्ण में भोजन का त्याग बताया गया है। वैदिक शास्त्रों में लिखा भी है कि-'अजीर्णप्रभावाः रोगाः' समस्त रोगों की उत्पत्ति अजीर्ण से होती है। यदि कोई ऐसा कहेगा कि-'धातुक्षयप्रभवाः रोगाः' ऐसा भी शास्त्रों में लिखा देख पड़ता है तो इनमें प्रमाणिक रूप से कौनसा वचन मान्य है? इसके उत्तर में जानना चाहिये कि धातु क्षय भी अजीर्ण से ही होता है। जो खाये हुए अन्नादि की परिपाकदशा पूर्ण रूप से हो जाय तो धातुक्षय नहीं हो सकता, चाहे जितना परिश्रम किया जाय परन्तु शरीर निर्बलता अंशमात्र नहीं हो सकती। जो अजीर्ण होने पर भी लालच से खाते हैं वे अपने सुखमय जीवन को नष्ट करते हैं। अजीर्ण की परीक्षा करने के लिये शास्त्रों में इस प्रकार लिखा है किमलवातयोर्विगन्धो, विड्भेदो गात्रगोरवमरुच्यम् । अविशुद्धश्चोद्गारः, षडजीर्णव्यक्तलिङ्गानि ।।१।। __ भावार्थ–१६, मल और वायु में दुर्गन्धि हो जाना, दस्त (पाखाने) में नित्य के नियम से कुछ फेरफार हो जाना, शरीर में श्री गुणानुरागकुलक १४३
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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