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________________ का भारी दोष लगता है। क्यों कि जो मर्यादा चली आती है वह अनेक बार पुरुषों को अनर्थ प्रवृत्ति से रोकती है। यदि गोत्रज में विवाह करने की मर्यादा चलाई जाय तो बहिन भाई भी परस्पर विवाह करने लग जाँय ? और यवनव्यवहार आर्यलोगों में भी प्रगट हो जाय, जिससे अनेक आपत्तियों के आ पड़ने की संभावना है। अत एव शास्त्रकारों ने भिन्नगोत्रज के साथ में विवाह करना उत्तम बताया है! मर्यादायुक्त विवाह से शुद्ध स्त्री का लाभ होता है और उसका फल सुजातपुत्रादिक की उत्पत्ति होने से चित्त को शान्ति मिलती है। शुद्ध विवाह से संसार में प्रशंसा और देव, अतिथि आदि की भक्ति तथा कुटुम्ब परिवार का मान भले प्रकार किया जा सकता है, कुलीन स्त्रियाँ अपने कुल शील की ओर ध्यान कर मानसिक विकार होने पर भी अकार्य सेवन नहीं करती हैं। परन्तु मनुष्यों को चाहिए कि समस्त गृहव्यवहार स्त्रियों के आधीन रक्खें १, द्रव्य अपने अधीन रखकर खर्च से अधिक स्त्रियों को न दें २, स्त्रियों को अघटित स्वतन्त्रता में प्रवृत्त न होने दें, किन्तु कबजे में रक्खें ३, और स्वयं परस्त्रियों को भगिनी अथवा मातृसमान समझें ४, इन चार हेतुओं को रखने से पति पत्नी के बीच में स्नेहभाव का अभाव नहीं हो सकता। अतएव समानकुल शील और भिन्न गोत्र वालों के साथ विवाह संबंध करने वाला पुरुष सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। 'पापभीरुः प्रसिद्धं च, देशाचारं समाचरन् । अवर्णवादी न क्वापि, राजादिषु विशेषतः ।।२।।' भावार्थ-४, पापभीरु- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अपायों (कष्टों) के कारणभूत पापकर्म से डरने वाला पुरुष गुणी बनता है। चोरी, परदारागमन, द्यूत आदि प्रत्यक्ष कष्ट के कारण हैं, क्योंकि इनसे व्यवहार में राजकृत अनेक बिडम्बना सहन करना पड़ती हैं। मद्य मांसादि अपेय, अभक्ष्य पदार्थ अप्रत्यक्ष कष्ट के कारण हैं, क्योंकि इनके सेवन से भवान्तर में नरकादिगतियों में नाना दुःख प्राप्त होते हैं। ५, प्रसिद्धं च देशाचारं समाचरन्-अर्थात् प्रसिद्ध देशाचार का आचरण करना। यानी उत्तम प्रकार का बहुत काल से चला आया जो भोजन वस्त्र आदि का व्यवहार उसके विरुद्ध नहीं चलना चाहिए, क्योंकि देशाचार के विरुद्ध चलने से देसनिवासी लोगों के श्री गुणानुरागकुलक १३७
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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