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________________ राजीमती के वचनप्रहारों से फिर सम्हलकर विषयविरक्त हो गया, अतएव रथनेमि पुरुषोत्तम ही है, क्योंकि जो मनुष्य अकार्य में प्रवृत्ति करता है वही पुरुषोत्तम नहीं कहा जा सकता। इसलिए जो पुरुष विकाराधीन होकर अकार्य में नहीं फंसता, किन्तु सावधान हो आजन्म ब्रह्मचर्य पालन करता रहता है, वह 'उत्तमोत्तम' ही है। वास्तव में कभी विकाराधीन न होना सर्वोत्तमोत्तम है, परन्तु कदाचित् प्रसंगवश चित्त चल विचल हो जाय, तो उसको शीघ्र रोक कर शुभविचारों में प्रवृत्ति करना चाहिए। क्योंकि जैसे जलसे सरोवर, धन से प्रभुता, वेग से अश्व, चन्द्र से रात्रि, जीव से शरीर, सद्गुण से पुत्र, उत्तमरस से काव्य, शीतल छाया से वृक्ष, लवण से व्यंजन, और प्रेम से प्रमदा शोभित है, उसी तरह उत्तम विचारों से मनुष्य की शोभा होती है। अतएव सद्गुण की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को निरन्तर अपने विचारों को सुधारते रहना चाहिए। जो विचारों को सुधारता रहता है उसको विषयादि विकार कभी नहीं सताते। विचार का दूसरा नाम भावना है। भावना दो प्रकार की है, एक तो शुभ भावना, और दूसरी अशुभ भावना।। पूर्व वर्णित मैत्री आदि शुभ, और क्रोध आदि अशुभ भावना कही जाती है, शुभ भावनाओं से आत्मा निर्विकारी, और अशुभभावनाओं से विकारी होती है, ब्रह्मचारियों को नित्य शुभभावनाओं की ओर विशेष लक्ष्य रखना चाहिए, जिससे आत्मा निर्विकारी बन उत्तमोत्तम बने। क्योंकि निर्विकारी मनुष्य ही आर्त्त रौद्र ध्यान, मद मात्सर्य आदि दोषों से रहित हो अपना और दूसरों का कल्याण कर उत्तमोत्तम पद विलासी बना सकता है। उत्तम पुरुषों के लक्षण *पिच्छिय जुवईरूवं, मणसा चिंतेइ अहव खणमेगं | जो नायरइ अकजं, पत्थिज्जतो वि इत्थीहिं।।१६।। * प्रेक्ष्य युवतीरूपं, मनसा चिन्तयत्यथवा क्षणमेकम् । यो नाचरत्यकार्य, प्रार्थ्यमानोऽपि स्त्रीभिः । १६ । श्री गुणानुरागकुलक १२५
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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