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________________ पर आनन्द का समय प्राप्त होगा। इस बात को सुनकर विजया दु:खी हुई । तब विजयकुँवर ने दुःखी होने का कारण पूछा, जब हाथ जोड़कर विनयावनत हो विजया ने कहा कि- स्वामिन्! मेरे भी कृष्णपक्ष में सर्वतः शील पालने का अभिग्रह लिया हुआ है, इससे आप दूसरी रमणी के साथ विवाह करिये, क्योंकि पुरुषों के अनेक स्त्रियाँ हो सकती हैं। यह सुन विजयकुँवर बोला कि हे सुशीले ! मैं तो प्रथम ही दीक्षा लेने वाला था, परन्तु माता पिता ने हठ से विवाह कर दिया। इसलिए मुझे दूसरी स्त्री के साथ विवाह करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि विषयसेवन से कुछ आयु वृद्धि नहीं होती, किन्तु बहुतकाल पर्यन्त सेवन किये हुए भी विषय पर्यवसान (अन्त) में दुःखदायक होते हैं। जिस विषय सेवन से कंप, घाम, परिश्रम, मूर्च्छा, भ्रम, ग्लानि, बल का क्षय और क्षयरोग आदि अनेक विपत्तियाँ जाग उठती हैं वह धर्मात्माओं को आनन्ददायक कैसे हो सकता है ? | अतएव संसार में स्रक् चन्दन और अंगना आदि पुद्गलजनित विनाशी विषयसुख हैं, वे परमार्थतः दुःखरूप ही हैं, इससे त्रिकरणशुद्धि पूर्वक आजन्म पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालन करूंगा। अपन दोनों का यथार्थ समागम पूर्व जन्म के योग से ही प्राप्त हुआ है, लेकिन यह वृत्तान्त किसी को मालूम हो जाय तो अवश्य दीक्षा ले लेनी चाहिये । अपने प्रियतम के इस प्रकार महोत्तम वचनों को सुनकर विजया अत्यानन्दित हुई, और पति आज्ञा को शिरोधार्य किया। इस प्रकार ये दोनों (दम्पती) स्वजीवित की तरह ब्रह्मचर्य को परिपालन करने लगे । अहा ! हा!! नवीन यौवन की फैलती हुई अवस्था में भी विवाह करके जिन्होंने सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन किया, यह आश्चर्य किसके हृदय को आनन्दित नहीं कर सकता ? | स्त्री के साथ एक ही सुकोमल शय्या के ऊपर शयन करना और फिर मदन के वशवर्त्ती न होना यह कितनी अमेय शक्ति ? । शृंगाररूपी वृक्षों के लिए मेघ श्री गुणानुरागकुलक ११६
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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