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हे आयुष्मन् ! इस दुःखात्मक संसार में ब्रह्मचर्य के सिवाय दूसरा कोई अमूल्य रत्न नहीं है, क्योंकि ब्रह्मचर्य से अग्नी-जल, सर्प-पुष्पमाला, सिंह-मृग, विष-अमृत, विघ्न-महोत्सव, शत्रु-मित्र, समुद्र-तालाब और अरण्य-घररूप बन जाते हैं। शीलसंपन्न पुरुष सकलकर्मों का क्षयकर इन्द्र नरेन्द्रों का भी पूज्य बन जाता है। कहा है किअमराः किङ्करायन्ते, सिद्धयः सहसङ्गताः। समीपस्थायिनी संप—च्छीलालङ्कारशालिनाम्।।१।।
भावार्थ-ब्रह्मचर्यरूप अलङ्कारों से सुशोभित पुरुषों के देवता किडर (नौकर) बन जाते हैं, सिद्धियाँ साथ में रहती हैं, और संपत्तियाँ भी समीप में बनी रहती हैं।
जिन पुरुषों ने ब्रह्मचर्य का तिरस्कार किया उन्होंने जगत में अपयश का डंका बजा दिया, गोत्र में स्याही का कलङ्क लगा दिया, चारित्र को जलाञ्जलि दे दी, अनेक गुणों के बगीचे में अग्नि लगा दी, समस्त विपत्तियों को आने के लिए संकेत स्थान बता दिया और मोक्षरूपी नगर के दरवाजे में मानों मजबूत किवाड़ लगा दिये।
__इस प्रकार धर्माचार्य का सदुपदेश सुनकर विजयकुँवर ने स्वदारासन्तोषव्रत लिया, और शुक्लपक्ष में तीनकरण न तीनयोग से सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन करने का दुर्धर नियम धारण किया।
उसी कौशाम्बी नगरी में 'धनवाह' सेठ की 'धनश्री' नाम की स्त्री की कुक्षि से 'विजया' नामक पुत्री उत्पन्न हुई और वह अभ्यास के लायक अवस्था वाली होने पर आर्यिकाओं के पास विद्याभ्यास करने लगी। किसी समय प्रसंग प्राप्त आर्यिकाओं ने उपदेश देना शुरू किया कि
हे बालिकाओं! संसार में स्त्रियों के लिये परम शोभा का कारण एक शीलवत ही है, जितनी शोभा बहुमूल्य रत्नजटिल अलारों से नहीं होती उतनी शोभा स्त्रियों के शीलपरिपालन से होती है। जो कुलवती स्त्रियाँ अखण्ड शीलव्रत को धारण करती हैं, उनकी व्याघ्र सर्प जल अग्नि आदिक से होने वाली विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, उनके आनन्द मंगल सदा बने रहते हैं, देवता उनके समीप
श्री गुणानुरागकुलक ११७