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________________ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, इन चार पुरुषार्थों को मानते हैं, परन्तु मोक्ष को परमार्थ और परमतत्त्व समझते हैं, तथापि हीनसत्त्व और कालानुसार पुत्रकलत्रादि के मोह ममत्व को नहीं छोड़ सकने के कारण धर्म, अर्थ तथा काम; इन तीनों ही वर्ग की आराधना यथासमय परस्पर बाधारहित करते रहते हैं। संसारस्वरूप और विषयादि भोगों को किंपाकफल की तरह दुःखप्रद समझते हुए भी 'महापुरुषसेवितां प्रव्रज्यामध्यवसितुं न शक्नुवन्ति' महोत्तम पुरुषों के द्वारा सेवित पारमेश्वरी दीक्षा को स्वीकार करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते। परन्तु जैनशासन के प्रभावक, मुनिजनों के भक्त, साधुधर्म के पोषकहो दान, शील, तप भाव और परोपकारादि सद्गुणों से अलंकृत सम्यक्त्वमूल-बारह व्रतों को निरतिचार पालन करते हैं; वे पुरुष ‘मध्यम' हैं। ये लोग जिनेन्द्रधर्म को निराशीभाव से सेवन करते हैं और सबका हित चाहते हैं, किन्तु किसी की भी हानि नहीं चाहते। इससे इस लोक में अनेक लोगों के प्रशंसनीय हो परलोक में उत्तम देव और मनुष्य पद प्राप्त करते हैं। -जो चारपुरुषार्थों में से केवल मोक्ष ही को परमार्थ स्वरूप समझते हैं और मोक्षमार्ग की आराधना करने में ही कटिबद्ध रहते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, मत्सर, रति, अरति, भय, शोक, दुगंछा आदि दुर्गुणों को छोड़कर पारमार्थिक सगुणों में चित्त लगाकर धन, धान्य, माल, खजाना, कुटुम्ब-परिवार को तुच्छ समझकर, भोगतृष्णामय दुष्ट इन्द्रियों को सर्वथा रोक कर वैराग्य वासना से वासितान्तःकरण होकर परमपुरुष सेवित और सब दुःखों की निर्जरा का हेतु पारमेश्वरी महोत्तम निर्दोष दीक्षा का सेवन करते हैं, अर्थात् चारित्रधर्म को स्वीकार करते हैं। शत्रु, मित्र, निन्दक, पूजक, मणि, कांचन, सज्जन, दुर्जन, मान, अपमान, गम्य, अगम्य आदि सब के उपर समानभाव रखते हैं, और सब जीवों को हितकारक उपदेश देते हैं। गृहस्थों के परिचय से विरक्त, आरंभ से रहित, सत्योपदेशक, अस्तेयी, ब्रह्मचारी और निष्परिग्रही होते हैं, वे 'उत्तमपुरुष' कहे जाते हैं, इस भेद में निर्दोष चारित्र को पालने वाले मुनिराज गिने जाते हैं। ६—जो लोग गृहस्थाश्रम छोड़ने पर भी सांसारिक विषयों के अभिलाषी, सब वस्तुओं के भक्षक, धनधान्यादि परिग्रह से युक्त, अब्रह्मचारी, मिथ्या उपदेशक, गृहस्थपरिचर्या (सेवा) कारक, ११० श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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