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________________ 10 भरहवासि वाणारसी पुरे धरणिणाह हयसेण मंदिरे वम्मदेवि गब्मि जिणेसरो इय मुणेवि बहु पुर पहंतरा लहु करेहि णयरी सुसोहणा तं सुणेवि तेणाविसंकिया णिय विहय-मोहिय सुरासुरे ।। मत्ततुंग गज्जंत चंदिरे ।। होहिही जयं भोयणेसरो ।। पंचवण्ण रयणहि णिरंतरा । । सयदलत्थि-लच्छी विमोहणा ।। जा जणेहि सुरपुरि व संकिया ।। घत्ता- वाणारसि णयरी रंजिय खयरी पेढि विलासिणी व सहइ । णाणाविह लोयहो भुंजिय भोयहो सइँ लीलइँ रइभरु सहइ ।। 14।। 1/15 Description of the beauty and affluence of Vāṇārasī. सुविसाल-साल कंचुअ समाण उल्लालिवि धयमाला करग्गु गोउर- मुहेण संजणेवि रंगु ण समिच्छइ णिद्वण - जणहँ संगु बहुविह भुवंग भणिज्जमाण ।। उच्चाएवि सुरहर थणहरग्गु ।। दरिसइ जलपरिहा तिवलि-भंगु । । नीरस राहँ रक्खइ वरंगु ।। "भारतवर्ष में सुरों एवं असुरों को अपने वैभव से मोहित कर लेने वाली वाणारसी नामकी नगरी है, जहाँ पृथिवीपति हयसेन के मदोन्मत्त एवं उत्तुंग शुभ्रवर्ण वाले हाथियों की गर्जना से युक्त राजभवन में रानी वामादेवी के गर्भ में तीनों लोकों को जीतने वाले जिनेश्वर पधारेंगे। अतः तुम लोग जाकर अनेक नगर एवं मार्गों से युक्त उस वाणारसी नगरी को शीघ्र ही सुशोभित कर दो पंच वर्ण वाले रत्नों की निरन्तर वर्षा करते रहो तथा उसे सहस्रदल कमलासनी लक्ष्मी को भी मोह लेने वाली बना दो।" इन्द्र का कथन सुनकर यक्ष ने भी उसे इस प्रकार सुशोभित कर दिया कि उस नगरी को देखकर लोगों के मन में इन्द्रपुरी होने की शंका होने लगी। घत्ता- खचरों को रंजित करने वाली वह वाणारसी नगरी उस प्रौढ़ विलासिनी - नायिका के समान सुन्दर दिखाई देने लगी, जो भोग भोगने वाले नाना प्रकार के रसिक जनों के लिए अपनी लीलापूर्वक रतिभार को वहन करती हुई सुशोभित होती है। (14) 1/15 वाणारसी नगरी के सौन्दर्य एवं समृद्धि का वर्णन (यक्ष द्वारा निर्मित - ) उस वाणारसी नगरी का एक विशाल कोट था, जो विविध प्रकार के भुजंगों (सर्पों) द्वारा सेवित केंचुल के समान था अथवा वह कोट केंचुल के वर्ण का था, और ऐसा प्रतीत होता था, मानों वह (कोट) उस नगरी रूपी नायिका की चोली हो, उससे युक्त वह (नगरी) भुजंगों अर्थात् भोगियों द्वारा सेवित थी । जो नगरी ध्वजारूपी कराग्रों को ऊँचे उठाए हुए थी, देवालय रूपी स्तनाग्रों को उन्नत किए हुई थी, जो गोपुर रूपी मुख से रंग (आनन्द) उत्पन्न करने वाली थी, जो जल से भरी हुई परिखा के बहाने मानों अपनी त्रिवली की भंगिमा ही दिखा रही हो, जो निर्धनजनों का समागम नहीं चाहती थी, वरांग को बचाए रखती थी, (अर्थात् जहाँ पासणाहचरिउ :: 17
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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