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________________ 5 10 1/8 On several requests Poet Sridhara meets Sahu Naṭṭala. जो भव्व-भाव पडण- समत्थु णायण्णइँ वयणइँ दुज्जणाहँ संसग्गु समीहइ उत्तमाहँ रुि करइ गोट्ठि सहुँ बुहयणेहि किंबहुना तुज्झु समासिएण महु वयणु ण चालइ सो कयावि तं णिसुणिवि सिरिहरु चलिउ तेत्यु तेण वि तहँ आयहो विहिउ माणु जं पुव्व जम्मि पविरइउ किंपि खणु एक्कु सिहे गलिउ जाम ण कयावि जासु भासिउ णिरत्थु ।। सम्माणु करइ पर सज्जणाहँ ।। जिणधम्म - विहाण णित्तमाहँ ।। सत्थत्थ-वियारण हियमणेहि ।। अप्पर अप्पेण पसंसिएण ।। जं भणमि करइ लहु तं सयावि ।। उवविट्ठर णट्टलु ठाइ जेत्थु || सपणय तंबोलासण समाणु ।। इह विहिवसेण परिणवइ तंपि ।। अल्हण णामेण पउत्तु ताम ।। घत्ता- भो णट्टल णिरुवम धरिय कुलक्कम भणमि किंपि पइँ परम सुहि । परसमय परम्मुह अगणिय दुम्मह परियाणिह जिणसमय विहि ।। 8 ।। 1/8 अल्हण साहू के अनुरोध से कवि श्रीधर का नट्टल साहू से मिलन "जो (नट्टल साहू) भव्य - (पवित्र) भाव प्रकट करने में समर्थ हैं, जिसका कथन कभी भी निरर्थक नहीं जाता, जो दुर्जनों के वचनों को (चुगलखोरी की बातों को) कभी भी नहीं सुनता, परन्तु जो सज्जनों का (सदा) सम्मान करता है, जो (सदैव उत्तमजनों के संसर्ग ( समागम) की इच्छा करता रहता है, जो नित्य ही जिन-धर्म-विधान में लगा रहता है, जो नित्य शास्त्रों के अर्थ के विचार करने के लिए हितैषी - मन वाले बुधजनों के साथ संगोष्ठी किया करता है । तुम्हारे सम्मुख उसकी अधिक प्रशंसा क्या करूँ? जो अपने कार्यों से अपने आप ही प्रशंसित है, उसकी अधि क प्रशंसा तुम्हारे सम्मुख करने से क्या लाभ? वह कभी भी मेरे वचन नहीं टालता, जो मैं कहता हूँ वह उसे सदा ही शीघ्रता पूर्वक पूरा करता है।" साहू अल्हण का कथन सुनकर कवि बुध श्रीधर चलकर वहाँ पहुँचा, जहाँ साहू नट्टल अपने भवन के प्रध न कक्ष में विराजमान थे। नट्टल ने अपने यहाँ आये हुए कवि को सम्मानित किया और स्नेहादर पूर्वक आसन पर बैठाकर ताम्बूल प्रदान किया। (-उस कक्ष में एक-दूसरे के सम्मुख एक क्षण तक चुपचाप बैठे हुए वे दोनों ही अपने-अपने मन में यह विचार करते रहे कि - ) "हमने पूर्वजन्म में जो कुछ भी शुभ कर्म किया था, संयोग से उसी का सुफल इस क्षण (इस रूप में) हमें यहाँ प्राप्त हो रहा है (कि हमें किसी एक सुयोग्य व्यक्ति से मिलकर परस्पर में बातें करने का सुयोग मिला ) । " ( हार्दिक - ) स्नेह के उस दिव्य वातावरण में जब कुछ क्षण बीत गये, तब कवि श्रीधर ने अल्हण साहू का नाम लेकर नट्टल साहू से कहा 10 :: पासणाहचरिउ घत्ता - हे नट्टल साहू, तुम निरुपम हो (अर्थात् तुम्हारे समान यशस्वी कोई नहीं है), तुम कुलक्रम (कुल-परम्परा) के धारक हो। तुम पर-समय ( मिथ्या मत) से परांगमुख हो, दुर्मथ (पापों) से दूर हो तथा जिन-समय के विविध अर्थों को जानने वाले हो । अतः तुम्हारे लिए परम सुख की प्राप्ति के कुछ साधन बतलाता हूँ। (8)
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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