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प्राक्कथन
महाकवि बुध श्रीधर द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित 'पासणाह - चरिउ' एक ऐतिहासिक महत्त्व का अनूठा काव्य है। इसका अध्ययन करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि बुध श्रीधर केवल कवि एवं साहित्यकार ही नहीं हैं वरन् वे मध्यकालीन श्रमण संस्कृति एवं ढिल्ली (वर्तमान दिल्ली) के इतिहास के अविवादास्पद अध्येता भी माने जा सकते हैं। उनकी रचनाओं में शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान की व्यापकता और सार्वभौमिकता को देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है । ग्रन्थ-नायक 'पार्श्व' तथा अन्य कथा-प्रसंगों के माध्यम से कवि ने धर्म, दर्शन, अध्यात्म, आचार एवं सिद्धान्त के अतिरिक्त भूगोल, खगोल, इतिहास, संस्कृति, वेद-वेदांग, व्याकरण, नाट्यशास्त्र, लोक-संस्कृति एवं कला, आयुर्वेद, युद्ध - विद्या, रणनीति, राजनीति आदि ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न पक्षों को भी उजागर किया है।
बुध श्रीधर ज्ञान के अथाह सागर हैं। ज्ञान-विज्ञान की नाना प्रकार की धाराएँ प्रवाहित होकर मानों उनके अगाध हृदय-सागर में आकर पैठ गयी हैं। उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों के प्रयोग एवं श्रृंगार, बीभत्स, रौद्र, जैसे रसों का प्रासंगिक सरित्प्रवाह तथा उनके शान्तरस अवसान का सुरम्य चित्र प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता इस कवि में है । यवनराज के युद्ध-प्रसंग में कवि ने सम्राट् पृथ्वीराज चौहान एवं मुहम्मद गौरी के भीषण युद्ध की झाँकी इस प्रकार प्रस्तुत की है मानों वह स्वयं उसका द्रष्टा हों।
महाकवि की दृष्टि में ग्रन्थ-नायक 'पार्श्व' जैसा आदर्श युवराज भीम एवं कान्त दोनों प्रकार के गुणों से संयुक्त है। वस्तुतः एक भावी उत्तराधिकारी सम्राट के लिए अपने साम्राज्य में शान्ति बनाये रखने के साथ-साथ उसे बाहरी शत्रुओं से सुरक्षा का भी ध्यान रखना अनिवार्य होता है । कवि ने नायक 'पार्श्व' में इन दोनों प्रकार की क्षमताओं को प्रदर्शित किया है ।
महान् दार्शनिक प्लेटो ने अपने 'रिपब्लिक' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि " शासकों को उन स्वामिभक्त रक्षक कुत्तों के सदृश होना चाहिए जो अपने घर के सदस्यों के लिए तो कोमल, विनीत, संरक्षक एवं आज्ञाकारी हों तथा बाहरी लोगों के लिए अत्यन्त खूँखार एवं आक्रामक ।" प्लेटो के अनुसार ही शासक को जहाँ एक ओर दार्शनिक होना चाहिए, वहीं दूसरी ओर उसमें सैन्य संगठन एवं युद्ध-संचालन तथा रण-कौशल की क्षमता भी होना अनिवार्य है। बुध श्रीधर के नायक कुमार 'पार्श्व' पर ये सभी बिन्दु भलीभाँति घटित होते हैं। कुमार पार्श्व एक ओर जहाँ मातापिता के परम भक्त, अपने मामा रविकीर्ति के विपत्तिकाल में अत्यन्त सहृदय एवं उनके सक्रिय सहयोगी, प्रजाजनों के प्रति अत्यन्त संवेदनशील, मानव-कल्याण अपि च प्राणि-कल्याण के प्रति चिन्तित, सहृदय एवं दयालु हैं, वहीं यवनराज के प्रति अत्यन्त क्रोधित तथा उसकी चुनौती स्वीकार कर उसे जड़-मूल से उखाड़ फेंकने के लिए एक रणवीर योद्धा के समान दृढ़संकल्पशील हैं।
कवि की दृष्टि का प्रसार चतुर्मुखी है। वह व्यापकता को लिये हुए है। जब वह स्वयं कौतूहलवश विहार करते हुए (विहरतें कोऊहल-वसेण) यमुना पार कर दिल्ली आता है, तब वहाँ के सौन्दर्य से वह अत्यन्त प्रमुदित हो उठता है। उसके अनुसार वहाँ के नदी, नद, सरोवर, देवालय, उत्तुंग भवन, विशाल प्रेक्षण गृह (Auditorium) अत्यन्त सुन्दर हैं एवं कातन्त्र-व्याकरण की पंजिका टीका के समान (कातंत इव पंजी - समिद्ध) समृद्ध हैं तथा वहाँ की
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